Sunday, September 6, 2009

ढलानें


जब कभी
देखता हूॅ पहाड़ों को
उनकी ढलाने डराती है मुझे
धीरे धीरे सूरज चढ़ता है आसमान पर
शाम को लुढ़कती है उसकी गेंद
गोल गोल घूमती हुई
मैं देखता हूँ ऊपर , और नीचे
एक पत्थर लुढ़क जाता है
पहुंॅच जाता है बहुत दूर

डगमगाते हैं पैर
लगता है हम अब गिरे तब गिरे
यह गिरने का डर संभाल लेता है हमें
मगर दूर तक जाने नहीं देता

मैं रखना चाहता हूं
इस ढलान पर अपने भीतर से निकालकर
एक नदी, जो जा सके, दूर तक

मैं रखना चाहता हूं
कुछ शब्दों के दीप
उस कागज की नाव में
जिसे ढलाने से उतरती हुई नदी में
रखते हुए सोचना चाहता हूं कि
यह उजाला पहुॅच जाये
उन अंधेरी घाटियों में, जहाँ
पत्थरों पर बन चुकी हो एक हरी फिसलनी
जहां मुश्किल से टिकते है
आदमी के पाव

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आकाश में शब्द


ये शब्द हैं
मेरा साथ नहीं दे सकते,
ये साये हैं
हाथों में हाथ नहीं दे सकते
यह सब जानता हूं
मगर फिर भी जाने कब से
मेैं दे रहा हूँ शब्दों का साथ
लड़खड़ाते हुए सायों का थाम लेता हूं हाथ

मैंने उजालों में,
हरी घास की तरह दूर दूर तक फैले हुए
इन खयालों में
अक्सर अपने ही सवालों में
उठा लिया है आकाश
कहीं दूर और देर तक उड़ने के लिए

एक दिन
शब्द आकाश को भेद कर
उसके भीतर समा जाएंगें
वे चमकेंगे वहॉ उसके तारामण्डल में शामिल होकर
उनकी रोशनी में
रात बिना चॉद के भी अंधेरी नहीं होगी,
और उस रात में
अपने मन की बात में
अपने सिर्फ अपने ही अर्थ के आकाश में
मैं भी समा जाऊंॅगा
ठीक वैसे ही जैसे
एक शब्द समा जाता है आकाश में
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सारी प्रगति के बाद


धरती का घूमना जारी रहेगा
होते रहेंगे दिवस-मास,
मौसम बदलते रहेंगे

कोई चिड़िया
फिर गूंथेगीं घोंसला
कोई चीटी ले आएगी शक्कर के दानें

परमाणु विस्फोटों के बाद भी
आएगी पूर्णिमाएँ और
समुन्दरों का सीना फूल जाएगा कामना से
किसी खंडहर में बजेगी कोई वायलिन
और कोई भर जाएगा भावना से

आधी रात में
महक उठेगी रातरानी
चंपा करती रहेंगी सुबह का इंतजार
खुशबू फैलाने के लिए

सारे चक्र
ऐसे ही चलेंगे ऋतुओं के
हॉ, बसंत में कम होगी
सोने की चमक
गेंहू का स्वाद और खो जाएगा
जुवार के दानों से
निकल जाएगी चॉदी

मगर
धरती से निकल पाएगा
प्रेम का गुरूत्वाकर्षण
बहुत सारी चीजें बदल जाएगी
और बहुत सारी चींजें बदलने से इंकार कर देंगी
वक्त बदलेगा मगर
क्या वक्त के साथ बदल जाएंगे हमारे संबंध भी ,
कल जब हम होंगे अंतरिक्ष के वासी
तब भी
क्या हम इस धरती से प्यार करते ही रहेंगे ऐसा ?


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पानी की तलाश में


घर में
आग लगे तो आदमी
सबसे पहले किसी चीज़ को बचाता है

क्या
उन तमाम चीज़ों में से किसी चीज़ को
जिनका
मिला-जुला होना ही घर होता है ?
अथवा उन्हें
जिनके साथ रहने से
घर-घर रहता है ?

जलते हुए मकान में
घिर गई बूढ़ी मॉ
कमजोर बाप
अपनी बहिनें
अपनी बीवी
अपने बच्चे
किसे बचाता है वह
सबसे पहले ?

घर में
आग लगे तो आदमी सबसे पहले
भागता है बाहर की ओर
और
भागता हुआ आदमी
कभी किसी को नहीं बचाता

भागता हुआ आदमी
बचाना चाहता है अपनी ही जान
इसलिए
किसी भागते हुए आदमी के प्यार पर
तुम कभी भरोसा मत करना
भले ही वह कहे कि
वह जलते हुए मकान से
कुएॅ की तरफ भागा था
पानी की तलाश में

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यहाँ से पारदर्शी


मैं जिस सेटेलाइट से
दुनिया को देखता हूँ, वहां से
सभी कुछ पारदर्शी हो जाता है,
मुझे
एक्स-रे रिपोर्ट की तरह
सभी चीज़ों का कंकाल साफ नज़र आता है
बहुराष्ट्रीय-बहुविज्ञापित कंपनियों के
महॅगे से महॅगे सूट पहनने के बावजूद
आदमी नंगा नज़र आता है वहाँ से
ऐसा नहीं कि
वहाँ से मैं कोई प्रेम दृश्य नहीं देखना चाहता
मगर
अपने चूजों के लिए चुग्गा लेकर जलती हुई चिड़ियों की बजाय
मुझे वो मीठी बोली वाली कोयलें मिलती है
जो अभी-अभी अपने अंडे,
किसी कौवी के घोंसले में रखकर आयी है ,
ऐसा नहीं कि
वहां से सैकड़ों सफेद चरती हुई भेड़ों के झुंड वाले
उस गडरिये को नहीं देखना चाहता
जो किसी टीले पर बैठकर
बड़ी मस्ती से बजा रहा है अपनी बाँसूरी
मगर उसे देखकर अक्सर मैं चौंक जाता हूँ.
यह वही आदमी है
जिसे भेड़ें अपनी हरी घास के लिए
निरंतर देती रहती है धन्यवाद
बगैर यह जाने कि
यह सिर्फ उनकी खाल ही खेंचकर तृप्त नहीं होगा
यह उनके बाल भी खेंचता रहेगा हर साल
वह उन्हें
मरने से पहले मार डालेगा
भेड़ों को पता नहीं
वह उन्हें सस्ती घास को
महॅगे मांस में तब्दील करने वाला
उपकरण बना चुका है
मैं देखता हूँ
कविता के सेटेलाइट से यह दुनिया
जहाँ से सभी कुछ पारदर्शी हो जाता है
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उनकी सूरतें


वो लोग हॅसते हैं
मैं देखता हूँ उनकी सूरतें

रात को
वो शराब के नशे में धुत्त
अपनी बीबी के फटे हुए ब्लाउज को
कर देते हैं चीथड़ा चीथड़ा और
अपने पुरूषार्थ को महारथी की तरह साबित करके
अपना सिर विजय-ध्वजा की तरह लहराते हेैं

सुबह
कर्ज के तकाजों से चुराए फिराते हैं निगाहें
फटे हुए हाफ पेंट पहनकर स्कूल जाते हुए
अपने बच्चों को देखा-अनदेखा कर
चल देते हैं रोज की तरह
अपने तमाम साथियों के बीच
वैसे ही रोज की तरह हंसते हैं
मैं देखता हूँ उनकी सूरतें
सोचता हूँ
आदमी और जानवर के बीच का फर्क
वो किस तरह हॅसकर मिटा देते हैं
किस तरह लापरवाह होकर वो जी लेते हैं
अपने आप को समझ कर मस्त
वो कैसे रह लेते हैं अपनी उलझनों में मस्त

यदि जानवर भी हॅसना जानते
तो क्या इन लोगों की सूरतें उतर जाती ?
क्या इन्हें अपनी घपड़पच्च लिजलिजी दैनंदिनी में
ऐसी हँसी पातीं ?
मगर इस बात से बेखबर
वो लोग बेफिक्र है
उन्हें कोई कमी महसूसती नहीं
उनकी ज़िंदगी में कविता का कोई अर्थ नहीं
बीबी के होठों पर पड़ी सुखी हुई
पपड़ियाँ उन्हें टीसती नहीं
बच्चे-दर-बच्चे पैदा कर
वो कासे की थालियाँ पीटकर
करते हैं मुहल्ले में रतजगा
औरतें गीत गाती है
बताशे बॅटते हैं
वो लोग सट्टे की पर्चियों पर
अपनी खुशी ढूॅढते हैें जैसे
चीटीं धूल में ढूॅढती है शक्कर का दाना
वो भूलतें नहीं
मंदिरों-मजारों पर जलाना धूप काड़ियां
देखते है सिनेमा
रेजर के अभाव में बढा लेते हैं दाढ़ियां
बीमारी में तंगहाली पर सोचते हैं
खाते नहीं दवाई, मगर
फूॅकते है बीड़ियां
थूकते और चबाते हैं जर्दा
गुनगुनाते हैं -
''हर फ़िक्र को धुॅवें में उड़ाता चला गया ....''
फिर हँसते हैं
ज़िंदा दिली का देते हेैं परिचय
जोरों से हॅसते हैं, वैसे
जोर से हॅसने परे
उन्हें होता है पसलियों में दर्द
हर फिक्र को
धुँवे में उड़ाकर वो हॅसते हैं
मैं देखता हूॅ उनकी सूरतें

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युध्द के बीज


कब तक
झूठी मुस्कुराहटों को समझते रहोगे मोहब्बत

कब तक
हाथों के पहुॅच से परे हर चीज़ पर संतोष का पर्दा डालकर
देते रहोगे तसल्ली खुद को ?

कब तक
कविताई-कल्पना से टूटी हुई छत के पार
देखते रहोगे इंद्रधनुष ?

माना
गरीबी को बर्दाश्त करते रहना कोई कम हिम्मत का काम नहीं
मगर क्या ज़रूरी है इस हिम्मत का इस्तेमाल
सिर्फ बर्दाश्त ही करने के लिए ही करो ?
खामोश रहो ? सहते रहो ?
ऑसुओं को देकर धोखा हँसते रहो ?

इससे तो अच्छा है
इस हिम्मत की कोख में तुम युध्द के बीज़ बो दो
गरीबी और मजबूरी के खिलाफ

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एक माचिस खोके में


आसमान की छाती पर
पैर धरकर चल रहा है वह
समुन्दरों के किनारे
बैठकर वह पैरों से खंगाल डालता है
पाताल की गहराईयॉ

अब दुनिया का कोई भी पहाड़
उससे ज्यादा ऊंचा नहीं है

कभी कभी सोचता हूँ
कितना बड़ा है आदमी का दिमाग
मगर कितने तंग और छोटे छोटे घरों में
कितनी तहों में रखा गया है इसे
छोटी छोटी दराज़ों में

इस वक्त
बड़ी तेजी से सिकुड़ती हुई दुनिया में
यह सिकुड़ता हुआ आदमी
मेरी नज़रों के सामने है
छोटे छोटे कोनों में
अपना घर बनाता हुआ, मुस्कुराता हुआ
अपनी छोटी छोटी कल्पनाओं में डूबा हुआ

वह कितनी शान से जी रहा है
एक माचिस के खोके में रखे हुए
ढांका की एतिहासिक
मलमल के थान सी ज़िदगी
मगर सिकुड़ जाने की कला पर
कितना ऐंठ रहा है वह


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आंसुओं का नमक


दुख में
प्यार नहीं मिले तो आदमी कड़वा हो जाता है
जैसे पानी की कमी से
कड़वा हो जाता है गर्मियों में पनपता हुआ ख़ीरा

दुख में
यार नहीं मिले तो आदमी कड़वा हो जाता है
जैसे नमक की कमी से कड़वा हो जाता है करेला
खीरा हो या करेला
नमक से रगड़ कर
उसकी कडुवाहट निकालती हुई वह औरत
छुपाकर बैठी है
अपने आंसुओं में भी ऐसा ही खारा नमक

क्या
इस नमक से वह निकाल सकेगी
आदमी के भीतर से
उसकी कडुवाहट भी ?

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घर लौटने का वक्त

मेरी नन्हीं सी बेटी
अभी घड़ी देखना नहीं जानती
मगर वह पहचानने लगी है मेरे आने की घड़ी

शाम होती है
यह वक्त है मेरा दफ्तर से लौटने का
दिन भर की उलझने कोने में लपेटने का

इस वक्त
मैं रास्तों को तेज़ी से पार करना चाहता हूँ
इस वक्त मैं अपनी सॉसों को चार करना चाहता हूँ
क्योंकि अक्सर सॉसों का भरोसा तो आधा ही होता है
और आदमी का अरमान
उसकी ज़िदगी की कुल लंबाई से कुछ ज्यादा ही होता है

कभी कभी
लगता है कल पहुॅच जाएॅगे वहाँ
मगर क्या आज ही हम बच पाएॅगें यहॉ ?

बचने की चाह
आदमियत की है या हैवानियत की
यह अभी पूरी आदम जात में शोध का विषय है,
लेकिन ये सारी बातें अभी सोचने का वक्त नहीं है

इस वक्त
मैं सोचना नहीं पहुंचना चाहता हूं
सोचना ज़रूरी नहीं, पहुंचना ज़रूरी है
इस ढलती हुई शाम के वक्त
मुझे किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है
इस वक्त मेरी ज़रूरत है किसी को

दिनभर
दुनिया की नज़रों में फालतु समझे जाने के बाद
कुछ देर के लिए ही सही, मगर खुद को ज़रूरी समझे जाने,
और ख़ुद को ज़रूरी महसूस करने का वक्त है ये
इस वक्त
गली में आहट होती है कि
लपक कर आती है मेरी बिटिया घर की गैलरी में
क्योंकि ये मेरे दफ्तर से लौटने का वक्त है
इस वक्त उसका ध्यान खेलने में नहीं, गैलरी में होता है
उसके कान मेरी आहट को पहचानते हैं, इसलिए
वक्त का मतलब ना जानने के बावजूद
मुझे लौटने में ज़रा भी देर हो जाये तो
मुझे वक्त का मतलब वह समझा देती है
अपनी झुझलाहट से

इस वक्त सफेद परिंदे
आसमान को जिस तरह तेज़ी से पार कर रहे हैं
शाम के गुलाबी हाथ बादल के टुकड़ों को तार तार कर रहे हैं
इस वक्त
इंतज़ार के वो सारे रूमानी मायने
जो सीख़े थे कभी ,
इंतज़ार के इस रूहानी मायने को पाकर
लगता है फीके थे सभी

इस वक्त
गौधुली का पौराणिक अर्थ समझा जा सकता है
कहने भर के लिए , हंलाकि
यह दफ्तर से मेरे घर लौटने का वक्त है


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मोतियों भरी गोद


कई सवाल है
पागल कर देने वाले, मगर मैं सोचता हूँ
ये सवाल कौन पूछता है मुझसे ?
मुझे भी क्या ज़रूरत है
पागल कर देने वाले इन सवालों के जवाब देने की ?
इधर
मैदानों में फिर बिछ गयी है
दूर दूर तक हरी घॉस
सुबह सुबह उसकी गोद मोतियाें से भर जाती है
मैं उस रात के बारे में सोचता हूं
जो सुबह होने तक इसी घास पर पसरी हुई थी
और इतने सारे मोती जनकर
चली गयी है नदी में नहाने
सुबह सुबह
घास में मुस्कुराते हुए
इन मोतियों की तरह पूरी दुनिया में
फैली हुई है ज़िन्दगी की खुशी

मै इन मोतियों को बीनना चाहता हूं
जैसे कोई पुजारी बीनता है सुबह सुबह फूल
चमेली रात भर खिलती है
और सुबह सुबह टपका देती है डाल से फूल

मैं बीनना चाहता हूं वह सुगंध सांसों के तार से
इधर कुछ सवाल है जिनमें
फूलों के खिलने का वक्त, फूलों के खिलने की ऋतु
और फूलों की खुशबुओं पर लिखी हुई
कुछ प्रायोजित कंटकालोचनाएं हैं
इनकी उत्तेजना
शेंपेन के झाग सी उछलती है
इसकी कामना खा जाती है सारे जवाब
सही सवालों को लगा देती है ठिकाने
कई ख़याल जो घिरे रहते हैं सवालों के इर्दगिर्द

मगर
मुझे क्या ज़रूरत है कि मैं
खुद को घिर जाने दूं उन सवालों के बीच
जो आदमियों को उनके बिक जाने के लिये
करते रहते हैं पागल
उधर
फैली है दूर दूर तक
हरी घास में ज़िन्दगी की शबनम
क्या आप वहाँ चलेंगे मेरे साथ ,
सुबह सुबह उन मोतियों को बीनने,
जैसे कोई पुजारी बीनता है फूल सुबह सुबह ?
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