Saturday, August 8, 2009

वो बाँकी वन कुवँर

अलबर्ट आइन्स्टीन और रवीन्द्रनाथ टैगोर का एक दुर्लभ संवाद

अलबर्ट आइन्स्टीन और रवीन्द्रनाथ टैगोर का एक दुर्लभ संवाद

''धर्म हमारे सत्य को मूल्यवान बनाता है''

- गोविंद कुमार ''गुंजन''

अलबर्ट आइन्स्टीन बीसवीं सदी की एक ऐसी विलक्षण और प्रखरतम वैज्ञानिक चेतना का नाम है, जिसने हमारे विश्व को वैज्ञानिक विकास के नए और उच्चतर सोपान प्रदान किये थे । अपने युग की उस प्रखरतम मेधा के विकास को शरीर विज्ञान के आधार पर समझने के लिए आइन्स्टीन की मृत्यु के पश्चात वैज्ञानिकों ने उनके मस्तिष्क को प्रयोगशाला में संरक्षित कर लिया था, जो आज भी सुरक्षित रखा गया है । यह जानने की कोशिश की जा रही है कि सामान्य मनुष्य और एक अति उच्च स्तरीय मेधावान पुरूष के मस्तिष्क की बनावट में क्या मूलभूत फर्क होता है जिसके कारण ऐसी प्रतिभा का विकास संभव होता होगा । वर्षो के अनुसंधान के बाद भी विज्ञान अभी कोई निण्र्ाायक निष्कर्ष पर नहीं पहुॅच सका है । वह किसी ऐसे निष्कर्ष पर पहुॅच सकेगा यह अभी भी संदिग्ध ही है क्योंकि भारतीय दर्शन के अनुसार चेतना के स्तरों का विकास शरीर पर निर्भर नहीं होता । यह एक नितांत आत्यंतिक घटना होती है , जिसे नकार कर हम होमर से लेकर सूरदास तक के कितने ही विलक्षण जन्मांधों की ज्योतिहीन ऑखों से प्रकट हुए अनिर्वचनीय सौंदर्यलोक का रहस्य कभी जान नहीं पाएगें। फिर भी विज्ञान की इस कोशिश् से इतना अवश्य होगा कि कुछ ऐसी अबूझ भ्रांतियों का निवारण हो सकेगा जो मनुष्य के लिए सत्य के मार्ग में कभी भी और कहीं भी बाधा बन जाया करती है ।

जर्मनी के एक यहूदी परिवार में जन्में आइन्स्टीन केवल विज्ञान ही नहीं, साहित्य कला, संगीत और अध्यात्म के भी मर्मज्ञ थे । यही कारण है कि 14 जुलाई 1930 को अपनी जर्मन यात्रा के दौरान विश्वकवि गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर उनसे मिलने जब उनके निवास पर पहुॅचे तो वह एक ऐतिहासिक क्षण हो गया । विज्ञान और कविता के इन दो शिखरों के बीच उस दिन ''सत्य की प्रकृति'' को लेकर एक अनूठा संवाद हुआ था । प्रस्तुत है इस संवाद का अंग्रेजी से अविकल अनुवाद । ....

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आइंस्टीन : ''क्या आप मानते हैं कि ईश्वरत्व की संसार से कोई पृथक सत्ता है ?''

टैगोर : ''पृथक नहीं । मानवीयता के अनंत व्यक्तित्वों में ब्रम्हाण्ड समाहित है । ऐसी कोई चीज़ नहीं हो सकती जो मानवीय व्यक्तित्व के नियमों से बाहर हो । इससे यही सिध्द होता है कि ब्रम्हांड का सत्य मानवीयता का भी सत्य है । इसे समझने के लिए मैंने एक वैज्ञानिक तथ्य को लिया है । पदार्थ प्रोटान और इलेक्ट्रानों से बना है । इनके बीच एक ''गेप'' होती है । परंतु पदार्थ एक एक इलेक्ट्रान और प्रोटान को जोड़ने वाली इस छोटी सी दूरी के बावजूद ठोस नज़र आता है । इसी प्रकार मानवीयता की छोटी छोटी व्यक्ति इकाइयॉ है, पर उनका आपसी मानवीय संबंधों का एक अर्न्तसंबंध भी है जो मानवीय संसार को संबंधों का एक अर्न्तसंबंध भी है जो मानवीय संसार को एक जीवंत एकता प्रदान करता है (जैसे एक एक इलेक्ट्रान और प्रोटान पृथक सत्ता रखते हुए भी

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आपस में जुड़े हुए हैं वैसे ही ) हम सभी आपस में जुड़े हुए हैं । इस सत्य को मैं कला के माध्यम से, साहित्य के माध्यम से और मनुष्य की धार्मिक चेतना के माध्यम से तलाश करता रहा हूँ । ''

आइंस्टीन: ''ब्रम्हाण्ड की प्रकृति के बारे में दो अलग अलग मत है एक 'ब्रम्हाण्ड की एकता मनुष्यता पर निर्भर है, दूसरा यह कि ब्रम्हाण्ड एक ऐसा सत्य है जो मानवीय फेक्टर से परे है, उस पर उसकी निर्भरता नहीं है । ''

टैगोर : ''जब हमारा ब्रम्हाण्ड मनुष्य के साथ एक सा तालबध्द होता है तब ईश्वरत्व को हम सत्य की भॉति जानते हैं । उसे हम सौन्दर्य के रूप में महसूस करते हैं ।''

आइंस्टीन: ''यह तो ब्रम्हाण्ड की केवल मानवीय अवधारणा है । ''

टैगोर : ''दूसरी धारणा हो भी नहीं सकती । यह संसार मानवीय संसार है । इसकी वैज्ञानिक अवधारणा वैज्ञानिक मनुष्य की अवधारणा है । हमसे पृथक इसीलिए संसार का कोई अस्तित्व नहीं है । यह एक सापेक्ष संसार है जो अपने सत्य के लिए हमारी चेतना पर निर्भर रहता है । तर्क और आनंद का एक मानदंड होता है जो संसार को उसका सत्य प्रदान करता है । यह मानदंड उस ब्रम्हाण्ड पुरूष का है जिसका अनुभव हमारे अनुभवों में प्रकट होता है । ''

आइंस्टीन : ''क्या यह मानवीय अस्तित्व का या उसके वास्तविक अस्तित्व का प्रत्यक्षीकरण है ?

टैगोर : ''हॉ , एक दिव्य यथार्थ । इसे हम अपनी भावनाओं और गतिविधियों के माध्यम से हासिल करते हैं । हम अपनी सीमाओं के माध्यम से ब्रम्हाण्ड पुरूष का प्रत्यक्षीकरण करते हैं जिसकी कोई व्यक्तिगत सीमाएॅ नहीं है । यह र्निव्यैयक्तिक गहन आवश्यकताएॅ हैं । हमारी व्यक्तिगत सत्य चेतना सार्वभौमिक महत्व पाती है । धर्म हमारे सत्यों को मूल्यवान बनाता है (अन्यथा उनका कोई मूल्य ही नहीं होता ) और हम सत्य को उससे अपनी अनुषांगिकता के कारण अच्छी तरह जान पाते हैं। ''

आइंस्टीन : ''तो क्या सत्य अथवा सौन्दर्य का मनुष्य से परे कोई स्वाधीन या अनाश्रित अस्तित्व नहीं है ? ''

टैगोर : ''नहीं । ''

आइंस्टीन : ''यदि मनुष्य का कहीं कोई अस्तित्व नहीं हो तो क्या यह भुवन भास्कर (यह देदीप्यमान सूर्य) क्या सुंदर नहीं रह जाएगें ?''

टैगोर : ''नहीं रहेंगे ।''

आइंस्टीन : ''मैं इसे सौन्दर्य दृष्टि से सही मानता हूॅ, परंतु सत्य के मामले में नहीं ।

टैगोर : ''क्यों नहीं ?'' सत्य का प्रत्यक्षीकरण भी तो मनुष्य के माध्यम से ही होता है ।''

आइंस्टीन : ''मैं इसे सिध्द नहीं कर सकता कि मैं सही हूँ , यह मेरा धर्म है ।

टैगौर : ''सौंदर्य एक पूर्ण 'सम-लयता' में उपलब्ध होता है जो केवल सार्वभौमिक होकर ही पायी जा सकती है और सत्य केवल सार्वभौमिक मन की ही पूर्ण ज्ञानबुध्दि है । हम अलग अलग लोग अपनी भूलों और महाभूलों के द्वारा सत्य तक पहुॅचते हैं और वह भी अपने संचयित अनुभवों के द्वारा और अपनी ज्योर्तिमय चेतना के द्वारा । अन्यथा हमें उसका पता ही कैसे चलता?''

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आइंस्टीन : ''मैं इसे सिध्द नहीं कर सकता कि वैज्ञानिक सत्य को एक ऐसे सत्य के रूप में उद्भूत होना चाहिए जो पूरी तरह मनुष्यता से परे और अपने आप में पूरी तरह अनाश्रित या स्वतंत्र हो , परंतु मैं इसमें दृढ़ता से विश्वास करता हूँ । उदाहरण के लिए मैं मानता हूँ कि पायथागोरस का ज्यामिति में सिध्दांत जो कुछ कहता है वह सत्य लगभग मनुष्य के अस्तित्व पर निर्भर नहीं है । ऐसी ही इस वास्तविकता का भी एक अपना सत्य है । इसमें एक का भी इंकार दूसरे के अस्तित्व को नकार देगा । ''

टैगोर : ''सत्य जो सार्वभौमिक चेतना से एकाकार है, उसे अनिवार्य रूप से मानवीय होना ही पड़ेगा । अन्यथा हम व्यक्ति तौर पर जो कुछ जानते या महसूस करते हों उसे सत्य कहा ही नहीं जा सकेगा । कम से कम वह सत्य जिसे वैज्ञानिक सत्य कहा जाता है उसे एक लॉजिक या एक तर्क के माध्यम से अन्वेषित किया जाता है, परंतु वह भी अंतत: मानवीय माध्यम से ही प्राप्त किया जाता है। हिन्दु दर्शन के अनुसार ब्रम्ह की परम सत्य है , उसे कोई सर्वथा अलग थलग होकर नहीं जान सकता है, और ना उसे शब्दों में व्यक्त कर सकता है । उसे तभी पा सकते हैं जब अपने व्यक्तित्व को उसकी अनंतता में समाहित कर दिया जा सके । परंतु ऐसे सत्य का विज्ञान से कोई संबंध नहीं हो सकता । हम सत्य की जिस प्रकृति पर चर्चा कर रहे हैं वह उसके प्रकटीकरण की चर्चा है , अर्थात जो प्रत्यक्ष हो सके वही मानवीय मन के लिए सत्य है , इसीलिए मानव को माया का रूप कहा जा सकता है ''

आइंस्टीन : ''तो, आपके मतानुसार जो हिन्दु अवधारणा है उसमें मिथ्यात्व का अनुभव व्यक्ति विशेष का नहीं संपूर्ण मानवता का अनुभव है ?''

टैगौर : ''विज्ञान में हम सत्य के करीब पहुॅचने के लिए एक अनुशासन से गुजरते हैं जिसमें हमें अपने व्यक्तिगत मस्तिष्कों की सीमाएॅ हटा कर ही प्रवेश मिलता हैं। इस प्रकार सत्य का जो सार हम पाते हैं वह सार्वभौमिक मनुष्य का सच होता है ।

आइंस्टीन : ''हमारी प्राथमिक समस्या ये है कि क्या सत्य हमारी चेतना पर निर्भर नहीं है ?'

टैगोर : ''जिसे हम सत्य कहते हैं वह वस्तुनिष्ठ और विषयनिष्ठ पक्षों के बीच एक बौध्दिक सामंजस्य है । और ये दोनों ही पक्ष उस 'सुपर पर्सनल मनुष्य' से संबंधित है । ''

आइंस्टीन: ''मानवीयता से परे सत्य के अस्तित्व को लेकर हमारा जो पक्ष है उसे समझाया या सिध्द नहीं किया जा सकता, परंतु यह एक विश्वास है जिससे कोई भी रहित नहीं है । यहाँ तक कि छोटे से छोटा जीव भी । हम सत्य को एक 'सुपर ह्यूमन' वस्तुनिष्ठता प्रदान करते हैं । हमारे लिए अपरिहार्य है ये सत्य जो हमारे अस्तित्व , हमारे अनुभव और हमारी बुध्दि पर निर्भर नहीं है ,भले ही हम कह न सके कि इसका क्या मतलब है ?''

टैगोर : ''विज्ञान ने यह सिध्द कर दिया है कि एक टेबल जो ठोस चीज की तरह नजर आता है वह मात्र एक दृष्टिगोचर दिखावट है । जिसे मानवीय दिमाग एक टेबल की तरह महसूस करता है उसका कोई अस्तित्व ही नहीं होगा, यदि वह

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महसूस करने वाला दिमाग न हो तो । इसी के साथ यह भी हमें स्वीकार करना होगा कि टेबल की परम भौतिक सच्चाई अलग अलग घूमते हुए विद्युतीय बलों के केन्द्रों का एक विशाल समूह होना ही है , जिसका मानवीय चेतना से भी संबंध है । सत्य के साक्षात्कार में ब्रम्हाण्ड पुरूष के मन और व्यक्ति स्तर पर एक अलौकिक संघर्ष होता है । पुर्नमिलान की एक सनातन प्रक्रिया विज्ञान और दर्शन और हमारे नीति शास्त्रों में निरंतर चलती रहती है । किसी भी मामले में यदि कोई ऐसा सत्य है जो मानवीयता से संबंधित नहीं है तो उसका हमारे लिए कोई अस्तित्व ही नहीं है ।''

आइंस्टीन : ''तब तो मैं आपसे ज्यादा धार्मिक हूँ ....... । ''

टैगोर : '' मेरा धर्म उस ब्रम्हांड पुरूष (ईश्वर) की चेतना के साथ मेरे अपने होने की निरंतर मिलन प्रक्रिया में है । मेरे हिबर्ट-व्याख्यान का भी यही विषय था जिसे मैंने ''धार्मिक मनुष्य'' कहा था । ''

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यादों के उजाले ....

संस्मरण " यादों के उजाले "
गोविंद कुमार ''गुंजन''

यादें यदि उजाले जैसी हो तो हृदय उनसे जगमगा ही उठेगा और अगर बर्छियों जैसी हैं तो उनसे बिंध कर मन छलनी होगा ही । वास्तव में यादें इन दोनों जैसी ही होती हैं, उजाले जैसी ही और बर्छियों जैसी भी । आपका मन हमेशा यादों के उजालों से जगमगा नहीं सकता, पर उसकी बर्छियों सी टीसें कभी भी उठ सकती हैं । यादों से मुक्ति कोई आदर्श स्थिति नहीं है। उसके दंशों के बावजूद उसके उजाले कीमती होते हैं । इस उजाले की कीमत यदि कुछ दंश भी हों तो यह सौदा महॅगा नहीं है।
एक यात्रा प्रसंग में मेरी मुलाकात गुजरात के एक युवा व्यापारी जयेश भाई से हुई । सरलता, मिलनसारिता और सहज आत्मीयता के कारण वह बहुत जल्दी घुल मिल गये । उनकी निश्चिंतता और उद्वेगरहितता आकर्षक थी । अपने जीवन की एक घटना उन्होंने बताई । उनका बचपन बहुत निर्धनता में बीता था । कई बार एक टाईम भी चूल्हा घर में जला तो जला नहीं तो उपवास । ऐसे ही संकट के दिनों में जब घर में कुछ नहीं था तथा सब भाई बहनें माता-पिता भूखे प्यासे ही थे । घर में उदासी और विवशता का अंधेरा दिन के उजाले को मंदा कर रहा था। अचानक एक अतिथि दूर गॉव से यात्रा करते हुए उनके घर पहुॅचा । पूर्व परिचित होने से मिलने चले आये अतिथि ने पहुॅचते ही जयेश भाई के पिता से कहा -''बड़ी भूख लगी है, बिना औपचारिकता के घर में जो भी बना हो चल जायेगा । आप तो खाना खिलवाईये । अजीब स्थिति बन गई । अतिथि से कैसे कहें , कि घर में कुछ नहीं है ।
प्रतिष्ठा मध्यमवर्गीय लोगाें के लिए बड़ा बोझ होती है । उनकी कमजोर गर्दनें उसका भार सह नहीं पाती, पर फिर भी वह अपनी प्रतिष्ठा और अपनी इज्जत अपने सर पर ढोते ही रहते हैं। गर्दन भले ही टूट जाये पर अपनी बात हल्की नहीं होनी चाहिए, किसी के सामने घर की इज्जत कम नहीं होनी चाहिए, घर की बात किसी के सामने नहीं जाये, इस चिंता का संकट उनके लिये अपनी दरिद्रता के संकट से भी भारी होता है। उनका मकान जरूर पुश्तैनी था । एक हिस्से में जयेश भाई के ताऊ रहते थे । उनकी आर्थिक हालत थोड़ी ठीक थी । जयेश भाई के पिता ने अतिथि को बैठाया और भीतर के दरवाजे से बड़े भाई के पास पहुॅचे । मुसीबत बताई। बड़े भाई ने थोड़े चावल और दाल उधार दिये ।
जयेश भाई की मॉ ने अतिथि के लिये उस चावल से खिचड़ी पकाई । जब खिचड़ी पक गई, और अतिथि को परोसी जा रही थी तभी ताई बड़े गुस्से से भीतर आई, और परोसी हुई थाली उठाकर अतिथि के सामने ही पूरे परिवार पर जोरों से चिल्लाई - ''मेरे घर में तुम्हारे जैसे फालतू लोगों के लिये मुफ्त का अनाज भरा हुआ नहीं है । आवेश से तमतमाई हुई ताई तो चीख पुकार कर चली गई, पर अतिथि के सामने बेईज्जत हुआ पूरा परिवार जमीन में लज्जा से गड़ गया ।
इस समय जयेश भाई की उम्र पंद्रह-सोलह साल थी । परिवार में दो बड़ी बहनें, और एक छोटा भाई, सब इस बात से आहत थे, पर जयेश भाई के किशोर मन ने उसी क्षण कुछ तय कर लिया । ताई के क्रोध पर क्रोध न करते हुए, उन्होंने अपनी दरिद्रता की अनिवार्यता को मन ही मन नकार दिया । शुरू में उन्होंने फलों के व्यापार से छोटा मोटा काम शुरू किया और अपनी मेहनत, ईमानदारी और अच्छे व्यवहार से उन्होंने अपने व्यापार में बड़ी सफलता पायी । आज जयेश भाई पचास वर्ष के हैं । उनके पास अपना खुद का घर है, कार है । फलों के उनके अपने कुछ बगीचे हैं । बच्चे अच्छी स्कूलों में पढ़ रहे हैं । घर में सुख शांति है पर अब


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ताऊ की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं रही । ताऊ के लड़के जिम्मेदार नहीं निकले । परंतु जयेश भाई आज भी अपने ताऊ और ताई की बड़ी इज्जत करते हैं । हर काम में उनकी मदद करते हैं । सहारा देते हैं । अपनी मॉ से बढ़कर ताई को प्रतिष्ठा देते हैं । कहते हैं - '' उस दिन यदि ताई ने ललकारा न होता तो शायद मन में आगे बढ़ने की इतनी उद्दाम इच्छा ही नहीं जगती ।
जयेश भाई ने अपनी उस याद को अपने लिये एक उजाला बना लिया, इसलिये इसकी रोशनी से जगमगाता हुआ उनका मन प्रसन्न दिखाई देता है। कोई और होता, तो ताई की कटुता और अपमान को मन में घाव की तरह पालता । उसे नफरत का नासूर बना लेता । पर ऐसा नहीं हुआ । उस अपमान को उन्होंने अपमान नहीं एक चुनौति की तरह स्वीकार किया । और यही चुनौति उन्हें आगे ले गई जहॉ उन्हें अपनी दरिद्रता को पराजित करने की शक्ति मिली।
व्यक्ति व्यक्ति में फर्क होता है मन की बनावट का । यही फर्क महत्वपूर्ण है । व्यक्तित्व की जड़ों में यही फर्क काम करता है ।
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बालकृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार

बालकृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार

वह चिड़िया एक अलार्म घड़ी थी.....

'' वह चिड़िया एक अलार्म घड़ी थी.....''

गोविंद कुमार ''गुंजन''

अब मोबाइल फोन में अलार्म उपलब्ध रहने से अलार्म घड़ियों की बाजार में मांग घटने लगी हैं, परंतु एक समय घरों में अलार्म घड़ी भी महत्वपूर्ण वस्तु हुआ करती थी। परीक्षा के दिनों में सिरहाने रखी अलार्म घड़ी भोर में जगाती थी। सुबह जल्दी यात्रा करना होती तो रात को घड़ी में अलार्म लगा देते थे, ताकि सुबह समय पर उठा जा सके। अलार्म घड़ियां बहुत काम आती थी, परंतु आज जैसे हर किसी के पास मोबाइल फोन है, कुछ इस तरह पहले सबकों घड़ियां उपलब्ध नहीं रहती थी। कलाई पर घड़ी एक उपहार हुआ करती थी। परीक्षा में पास होने पर, कालेज में दाखिला होने पर बच्चों को घड़ी दिलवायी जाती थी, शादी में दूल्हे को ससुराल पक्ष वाले घड़ी अवष्य देते थे। कई सरकारी विभागों में सेवा निवृत्ति पर भी घड़ी देने की परंपरा थी। हम लोग कहते थे कि सेवा निवृत्ति के बजाय नौकरी लगने पर विभाग द्वारा पहले ही कर्मचारी को एक घड़ी भेंट में दी जानी चाहिए। ताकि वह समय पर अपने काम पर उपस्थित हुआ करें।

मुझे पहली बार कलाई घड़ी तब मिली थी जब मैंने कॉलेज में प्रवेष पाया था, और पहली अलार्म घड़ी भी मुझे कॉलेज में एक निबंध प्रतियोगिता के प्रथम पुरस्कार स्वरूप मिली थी। उस अलार्म घड़ी में चाबी भर कर अलार्म की घंटी बार बार बजा कर उसके सम्मोहक प्रभाव को मैं बहुत गहराई तक महसूस करता था। वह मुझे जाग्रत करने वाली ध्वनि थी, जिसकी मधुर ध्वनि रोमांचित कर देती थी। उस ध्वनि का नषा और स्वाद अब मंहगे से मंहगे अलार्म ध्वनि वाले मोबाईल फोन से भी नहीं मिलता। संवेदना के स्तर सदैव एक जैसे नहीं रहते। कभी उनकी सघनता अधिक रहती है तब छोटी छोटी चीजे भी बड़ा स्वाद देती है, कभी जब उनकी सघनता घट जाती है तब बड़ी बड़ी बातें भी उतना रस नहीं देती । यह सब मानवीय मनों की संवेदनाओं का खेल हैं।

जिन दिनों हमारे पास कोई अलार्म घड़ी नहीं थी, तब पिताजी कहा करते थे कि तुम्हे सुबह जितने बजे भी उठना हो, तुम अपने तकिये से कह कर सो जाओ कि सुबह मुझे इतने बजे उठा देना। बस फिर तुम्हारी नींद सुबह उतने ही बजे खुल जाएगीं ।

बचपन में कितनी ही बार इस फामूले को अपनाया था और सही पाया था। तकिया हमारी बात सुनता है, और ठीक समय पर हमें जगा भी देता है, यह कौतुहल भरा आष्चर्य जनक अनुभव बहुत अच्छा लगता था, भले ही तब उसका रहस्य हमें पता नहीं था। मुझे सुबह सुबह उठकर पढ़ना रास नहीं आता था। रात में देर तक पढ़ना सुहाता था। रात्रि के एकांत में मध्य रात्रि से भोर तक पढते रहना, और सुबह सुबह नीदं लगा जाने पर देर से उठना मेरी आदत होती जा रही थी। कई बार रात को दो या तीन बजे तक पढ़ने के कारण सुबह जल्दी नींद खुलती थी, और सुबह का सौंदर्य सिर्फ कविताओं में ही महसूस किया जाता था। पुरस्कार में मिली वह अलार्म घड़ी जब खराब हुई तो फिर सुधर नहीं सकी। आज भी वह तीन दषकों के अधिक समय से मेरे पास बंद हालत में हैं, वह अब सुधरने योग्य नहीं रही परंतु मैं भी कहॉ सुधरने लायक बचा था। देर रात तक पढ़ना और सुबह देर तक सोना यह एक अभ्यास ही बन गया था।

वह अस्सी का दषक था, मेरी नई नई नौकरी लगी थीं। पहली बार घर से बाहर निकला था। एक कमरा किराये पर लेकर रहता था। अकेले रहने का यह पहला पहला अनुभव। कमरे में मैने महादेवी, पंत और निरालाजी की सुंदर तस्वीरे फ्रेम करवा कर टांग दी थी। एक तरफ गुसाई तुलसीदास जी का चित्र, अपनी पुस्तके, और अपना एकांत। रातें जाग जाग कर बिताना, कविताएं लिखना, और कविताओं में डूबे रहना जैसे स्वर्ग में जीना था। परंतु अपने उस एकांत में निषाचारी वृत्ति के कारण फिर सुबह जल्दी उठना मुष्किल होने लगा। पड़ौसी कृपा कर के दरवाजा खटखटाते तो नींद खुलती। देर सबेर दफ्तर पंहुचना। प्रयत्न करने पर भी सुबह नींद नहीं खुलती थी। अलार्म घड़ी भी नहीं थी और ना ही खरीदने का खयाल आया। मोबाईल फोन तो तब देखे भी नहीं थे।

मेरे कमरे में सिर्फ एक दरवाजा ही था। ना कोई खिड़की थी ना कोई रोषनदान। परंतु फिर भी वह कमरा बहुत प्यारा लगता था। किराया भी काफी कम था। इन सब से बढ़कर पड़ौसी बहुत अच्छे थे। देर तक रात में पढ़ने लिखने का व्यसन बढ़ता जा रहा था, और इसमें कोई व्यवधान नहीं था। हिन्दी और अंग्रेजी का बहुत सारा साहित्य मैंने उस एकांत में खंगाल डाला। वह सुख अपूर्व था। कठिनाई सिर्फ सुबह की थी, जब नींद नहीं खुलती थी। दिन के काम और दफ्तर की नई नई जिम्मेदारी देर से उठने के कारण अव्यवस्थित हो जाती। दिन गड़बड़ा जाता था। कई बार तकिये से सुबह जल्दी उठा देने की भी मिन्नतें करता था, परंतु तब तकिये ने मेरी, बात सुनना बंद कर दिया था। ऐसे ही दिन गुजर रहे थे।

अपनी किताबों की दुनिया में खोया हुआ मैं इतना बेखबर था कि कब एक चिड़िया कमरे के खुले दरवाजे से कमरे में आकर दीवार पर लगी पंतजी की तस्वीर के पीछे अपना घोंसला बनाने लगी मुझे पता तक नहीं चला। जब पता चला तब तक उसका अपने घाेंसले में गृह प्रवेष हो चुका था और वहां वह अपनी गृहस्थी जमा चुकी थी।

शाम को देर तक मेरा दरवाजा खुला रहता था इसलिए खिड़की या रोषनदान नहीं होने के बावजूद वह चिड़िया आराम से पधार जाती। अपने घोंसले में आराम करती। मै अपनी किताबों की दुनिया में खोया कभी उसकी तरफ ध्यान ही नहीं देता था।

एक सुबह मैं नींद में था। चिड़िया मेरे पलंग के सिरहाने बैठकर एक अलग तरह की भुंझलाहट से भरी चींचीं कर रही थी। उसकी आवाज तीव्र थी, मानों मेरे नहीं उठने पर वह नाराज हो। उसकी आवाज से मेरी नींद खुली परंतु मै उठा नहीं। चिड़िया बार बार पलंग के सिरहाने आकर फुदकती और अपनी तीव्र ध्वनि से कमरे को गुंजा रही थी। मै कुछ समझा नहीं, परंतु उठकर दरवाजा खोला तो वह बाहर चली गयी।

मैं तब समझा कि सुबह सुबह चिड़िया को बाहर जाना होता है। घोंसला तो उसका केवल रात भर का आश्रय हैं। दिन में वह घोंसले में आराम से पड़ी नहीं रहती। छुट्टी के दिन हम घर में भले ही पड़े रहे, चिड़िया को दिन में घोसले में रहना नहीं सुहाता।

कमरे मे खिड़की या रोषनदान होता तो वह चिड़िया मुझे जगाए बिना बाहर चली जाती, परंतु दरवाजा बंद होने पर उसके बाहर जाने का दूसरा कोई रास्ता भी नहीं था। इसीलिए वह दरवाजा खुलवाने के लिए मुझे जगा रही थी, मेरे नहीं जागने पर वह नाराज भी हो रही थी। उसकी चहचहाट में जिस झुंझलाहट को मैंने महसूस किया था, उसका कारण भी तब जाकर मुझे समझ में आ चुका था। दरवाजा खुलते ही चिड़िया तेजी से चली गयी थी, और शाम को फिर लौट आयी। चुपचाप पंतजी की तस्वीर के पीछे बनाए हुए अपने घोंसले में।

दूसरे दिन सुबह फिर मेरी नींद नहीं खुली थी। देर रात तक पढ़ा था। अचानक चिड़िया की झुंझलाहट भरी चहचहाट ने जगा दिया। पलंग के सिरहाने बैठी वह चिड़िया मुझे गुस्से से देख रही थी, मानो मेरे देर तक सोने के कारण वह मुझसे नाराज हो। मैं थोड़ी देर उसकी चहचाहट का आनंद लेता रहा। उसने मेरी रजाई का कोना चोंच से पकड़ कर खींचा, वह मुझसे जरा भी डर नहीं रही थी। वह रजाई के उस हिस्से पर आ बैठी जो मेरे सीने पर था। उसका इस तरह मेरे ऊपर आना बहुत अच्छा लगा रहा था।

पंतजी की वीणा में लिखी पंक्तियां मानस में तैरने लगी :-

'' तूने ही पहले बहुदर्षिनी, गाया जागृति का गााना,

श्री-सुख सौरभ का नभ चारिणी, गूॅथ दिया ताना बाना,

खुले पलक, फेली सुवर्ण छवि, खिली सुरभि, डोले मधुबाल,

स्पंदन कंपन ओ' नव जीवन, सीखा जग ने अपनाना।

सचमुच उस सुबह पलके खुलने पर ऐसा ही लगा कि जैसे किसी ने जागृति का गीत गाया हो। उस नभचारिणी ने सचमुच श्री सुख सौरभ का तानाबाना उस सूने कमरे में गूंथ दिया था। ऐसी एक सुवर्ण छवि कमरे में छायी थी, जिसे पहले कभी महसूस नहीं किया था। स्पंदन और कंपन में नव जीवन उतर आया था। उस सुबह चिड़िया ने मेरी रजाई का कोना अपनी चोंच से खींचकर अपनी चहचहाट से जगाया था। बचपन में इतने ही प्यार और इतनी ही झुंझालाहट से देर तक सोने पर मॉ जगाती थी। मैं अपने चारो और फैले हुए उस श्री सुख सौरभ की स्वर्णिम छवि से अभिभूत होकर जागा था।

मैने उठकर दरवाजा खोला तो वह चिड़िया बाहर निकल कर चली गयी। अब यह रोज ही की बात हो गयी थी। सुबह चिड़िया को कमरे से बाहर जाना होता था, वह बहुत जल्दी जग जाती और दरवाजा खुलवाने के लिये मेरे पलंग के सिरहाने बैठकर चहचहाती और मेरी नींद खुल जाती।

जब मैं अपनी बंद कोठरी की शय्या को छोड़कर भोर में चिड़िया को बाहर जाने देने के लिए दरवाजा खोलता तो खुले दरवाजे से उस ताजी सुबह की देह की कांति कमरे में कौंध जाती। ठंडी हवा का स्पर्ष और बहुत कोमल कांत उजाला मेरे अलसाई ऑखों को सहलाता। मुझे लगा किसी अप्रतिम अनुभव को मैं देर तक सोकर व्यर्थ करता रहा हूॅ।

अब भी मैं रात को देर तक पढ़ता था, परंतु अब वह चिड़िया मेरी अलार्म घड़ी थी जो मुझे अपने साथ सुबह जगा लेती थी। अब वह पलंग के सिरहाने, या मेरी रजाई पर बैठकर चहचहा कर मुझे मधुर चहचहाट से जगाती थी, उसकी चहचहाट में अब वह झुंझालाहट नहीं, एक वात्सल्य भरी जागृति थी। वह किसी घड़ी की यांत्रिक ध्वनि नहीं थी, वह अपनेपन से भरी पुकार थी जो मुझे आसमान से अवतरित होती हुई प्रात: काल की सुमंगल घड़ी में पुकारती थी। उस सुमंगल घड़ी में सरिताओं के जल, आकाष का वायू, सूर्य का प्रकाष ये सब अपनी निर्मलता के चरम पर पहुंचकर सृष्टि मे नये फूल खिलाने के उपक्रम करते हैं।

अब मै चिड़िया के साथ जगना सीख गया था, और सुबह की उष्मा ताजगी और पुष्पांविति का वरदान पाने लगा था।

रवीन्द्रनाथ ने अपनी जीवन स्मृति में सच ही लिखा है ''........... मैं देवदार के जंगलों में घूमा, झरनों के किनारे बैठा, उसके जल में स्नान किया, कांचन श्रंगा की मेघ मुक्त महिमा की ओर ताकता बैठा रहा- लेकिन जहॉ मैने यह समझा था कि पाना सरल होगा वहीं मुझे खोजने पर भी कुछ ना मिला। परिचय मिला, लेकिन और कुछ देख नहीं पाया। रत्न देख रहा था सहसा वह बंद हो गया। अब मैं डिबिया देख रहा था। लेकिन डिबिया के ऊपर कैसी ही मीनाकारी क्यों न हो उसको गलती से डिबिया मात्र मानने की आषंका नहीं रही।''

सच है एक बार रत्न दिख गया फिर भले ही डिबिया बंद हो जाए, पर उस डिबिया में रत्न है यह अनुभूति नहीं जाना चाहिए। रवीन्द्रनाथ की इन पंक्तियों में डिबिया की मीनाकारी का भी जो उल्लेख है वह महत्वपूर्ण हैं।

उस चिड़िया ने डिबिया खोलकर मुझे भी उषा सुंदरी के रत्न दिखा दिये थे। उसका यह उपकार में भला कैसे भूलता ? दरवाजा खोलते ही चिड़िया चहचहाती हुई बाहर जाती, मानो मुझें कहती हुई जा रही हो कि देखो यह मीनाकारी वाली सुंदर डिबिया खुल रही है, इसके भीतर के रत्न को जल्दी देख लो, फिर यह बंद हो जाएगी। फिर तो दिनभर यह मीनाकारी से सजी डिबिया ही दिखाई देगी इसके रत्न नहीं दिखेगे।

मैं उस वात्सल्यमयी चिड़िया के उस उपकार को बहुत कृतज्ञता से महसूस करता हूॅ। उसने मुझे उस घड़ी जगना सिखाया जब धरती ओंस के मोती बिखराकर हर नये खिल रहे फूल का अभिनंदन कर रही होती हैं।

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