'' वह चिड़िया एक अलार्म घड़ी थी.....।''
                                    गोविंद कुमार ''गुंजन'' 
    अब मोबाइल फोन में अलार्म उपलब्ध रहने से अलार्म घड़ियों की बाजार में मांग घटने लगी हैं, परंतु एक समय घरों में अलार्म घड़ी भी महत्वपूर्ण वस्तु हुआ करती थी। परीक्षा के दिनों में सिरहाने रखी अलार्म घड़ी भोर में जगाती थी। सुबह जल्दी यात्रा करना होती तो रात को घड़ी में अलार्म लगा देते थे, ताकि सुबह समय पर उठा जा सके। अलार्म घड़ियां बहुत काम आती थी, परंतु आज जैसे हर किसी के पास मोबाइल फोन है, कुछ इस तरह पहले सबकों घड़ियां उपलब्ध नहीं रहती थी। कलाई पर घड़ी एक उपहार हुआ करती थी। परीक्षा में पास होने पर, कालेज में दाखिला होने पर बच्चों को घड़ी दिलवायी जाती थी, शादी में दूल्हे को ससुराल पक्ष वाले घड़ी अवष्य देते थे। कई सरकारी विभागों में सेवा निवृत्ति पर भी घड़ी देने की परंपरा थी। हम लोग कहते थे कि सेवा निवृत्ति के बजाय नौकरी लगने पर विभाग द्वारा पहले ही कर्मचारी को एक घड़ी भेंट में दी जानी चाहिए। ताकि वह समय पर अपने काम पर उपस्थित हुआ करें। 
         मुझे पहली बार कलाई घड़ी तब मिली थी जब मैंने कॉलेज में प्रवेष पाया था, और पहली अलार्म घड़ी भी मुझे कॉलेज में एक निबंध प्रतियोगिता के प्रथम पुरस्कार स्वरूप मिली थी। उस अलार्म घड़ी में चाबी भर कर अलार्म की घंटी बार बार बजा कर उसके सम्मोहक प्रभाव को मैं बहुत गहराई तक महसूस करता था। वह मुझे जाग्रत करने वाली ध्वनि थी, जिसकी मधुर ध्वनि रोमांचित कर देती थी। उस ध्वनि का नषा और स्वाद अब मंहगे से मंहगे अलार्म ध्वनि वाले मोबाईल फोन से भी नहीं मिलता। संवेदना के स्तर सदैव एक जैसे नहीं रहते। कभी उनकी सघनता अधिक रहती है तब छोटी छोटी चीजे भी बड़ा स्वाद देती है, कभी जब उनकी सघनता घट जाती है तब बड़ी बड़ी बातें भी उतना रस नहीं देती । यह सब मानवीय मनों की संवेदनाओं का खेल हैं। 
         जिन दिनों हमारे पास कोई अलार्म घड़ी नहीं थी, तब पिताजी कहा करते थे कि तुम्हे सुबह जितने बजे भी उठना हो, तुम अपने तकिये से कह कर सो जाओ कि सुबह मुझे इतने बजे उठा देना। बस फिर तुम्हारी नींद सुबह उतने ही बजे खुल जाएगीं । 
बचपन में कितनी ही बार इस फामूले को अपनाया था और सही पाया था। तकिया हमारी बात सुनता है, और ठीक समय पर हमें जगा भी देता है, यह कौतुहल भरा आष्चर्य जनक अनुभव बहुत अच्छा लगता था, भले ही तब उसका रहस्य हमें पता नहीं था। मुझे सुबह सुबह उठकर पढ़ना रास नहीं आता था। रात में देर तक पढ़ना सुहाता था। रात्रि के एकांत में मध्य रात्रि से भोर तक पढते रहना, और सुबह सुबह नीदं लगा जाने पर देर से उठना मेरी आदत होती जा रही थी। कई बार रात को दो या तीन बजे तक पढ़ने के कारण सुबह जल्दी नींद खुलती थी, और सुबह का सौंदर्य सिर्फ कविताओं में ही महसूस किया जाता था। पुरस्कार में मिली वह अलार्म घड़ी जब खराब हुई तो फिर सुधर नहीं सकी। आज भी वह तीन दषकों के अधिक समय से मेरे पास बंद हालत में हैं, वह अब सुधरने योग्य नहीं रही परंतु मैं भी कहॉ सुधरने लायक बचा था। देर रात तक पढ़ना और सुबह देर तक सोना यह एक अभ्यास ही बन गया था। 
       वह अस्सी का दषक था, मेरी नई नई नौकरी लगी थीं। पहली बार घर से बाहर निकला था। एक कमरा किराये पर लेकर रहता था। अकेले रहने का यह पहला पहला अनुभव। कमरे में मैने महादेवी, पंत और निरालाजी की सुंदर तस्वीरे फ्रेम करवा कर टांग दी थी। एक तरफ गुसाई तुलसीदास जी का चित्र, अपनी पुस्तके, और अपना एकांत। रातें जाग जाग कर बिताना, कविताएं लिखना, और कविताओं में डूबे रहना जैसे स्वर्ग में जीना था। परंतु अपने उस एकांत में निषाचारी वृत्ति के कारण फिर सुबह जल्दी उठना मुष्किल होने लगा। पड़ौसी कृपा कर के दरवाजा खटखटाते तो नींद खुलती। देर सबेर  दफ्तर पंहुचना। प्रयत्न करने पर भी सुबह नींद नहीं खुलती थी। अलार्म घड़ी भी नहीं थी और ना ही खरीदने का खयाल आया। मोबाईल फोन तो तब देखे भी नहीं थे। 
          मेरे कमरे में सिर्फ एक दरवाजा ही था। ना कोई खिड़की थी ना कोई रोषनदान। परंतु फिर भी वह कमरा बहुत प्यारा लगता था। किराया भी काफी कम था। इन सब से बढ़कर पड़ौसी बहुत अच्छे थे। देर तक रात में पढ़ने लिखने का व्यसन बढ़ता जा रहा था, और इसमें कोई व्यवधान नहीं था। हिन्दी और अंग्रेजी का बहुत सारा साहित्य मैंने उस एकांत में खंगाल डाला। वह सुख अपूर्व था। कठिनाई सिर्फ सुबह की थी, जब नींद नहीं खुलती थी। दिन के काम और दफ्तर की नई नई जिम्मेदारी देर से उठने के कारण अव्यवस्थित हो जाती। दिन गड़बड़ा जाता था। कई बार तकिये से सुबह जल्दी उठा देने की भी मिन्नतें करता था, परंतु तब तकिये ने मेरी, बात सुनना बंद कर दिया था। ऐसे ही दिन गुजर रहे थे। 
         अपनी किताबों की दुनिया में खोया हुआ मैं इतना बेखबर था कि कब एक चिड़िया कमरे के खुले दरवाजे से कमरे में आकर दीवार पर लगी पंतजी की तस्वीर के पीछे अपना घोंसला बनाने लगी मुझे पता तक नहीं चला। जब पता चला तब तक उसका अपने घाेंसले में गृह प्रवेष हो चुका था और वहां वह अपनी गृहस्थी जमा चुकी थी। 
         शाम को देर तक मेरा दरवाजा खुला रहता था इसलिए खिड़की या रोषनदान नहीं होने के बावजूद वह चिड़िया आराम से पधार जाती। अपने घोंसले में आराम करती। मै अपनी किताबों की दुनिया में खोया कभी उसकी तरफ ध्यान ही नहीं देता था। 
एक सुबह मैं नींद में था। चिड़िया मेरे पलंग के सिरहाने बैठकर एक अलग तरह की भुंझलाहट से भरी चींचीं कर रही थी। उसकी आवाज तीव्र थी, मानों मेरे नहीं उठने पर वह नाराज हो। उसकी आवाज से मेरी नींद खुली परंतु मै उठा नहीं। चिड़िया बार बार पलंग के सिरहाने आकर फुदकती और अपनी तीव्र ध्वनि से कमरे को गुंजा रही थी। मै कुछ समझा नहीं, परंतु उठकर दरवाजा खोला तो वह बाहर चली गयी। 
      मैं तब समझा कि सुबह सुबह चिड़िया को बाहर जाना होता है। घोंसला तो उसका केवल रात भर का आश्रय हैं। दिन में वह घोंसले में आराम से पड़ी नहीं रहती। छुट्टी के दिन हम घर में भले ही पड़े रहे, चिड़िया को दिन में घोसले में रहना नहीं सुहाता। 
कमरे मे खिड़की या रोषनदान होता तो वह चिड़िया मुझे जगाए बिना बाहर चली जाती, परंतु दरवाजा बंद होने पर उसके बाहर जाने का दूसरा कोई रास्ता भी नहीं था। इसीलिए वह दरवाजा खुलवाने के लिए मुझे जगा रही थी, मेरे नहीं जागने पर वह नाराज भी हो रही थी। उसकी चहचहाट में जिस झुंझलाहट को मैंने महसूस किया था, उसका कारण भी तब जाकर मुझे समझ में आ चुका था। दरवाजा खुलते ही चिड़िया तेजी से चली गयी थी, और शाम को फिर लौट आयी। चुपचाप पंतजी की तस्वीर के पीछे बनाए हुए अपने घोंसले में। 
दूसरे दिन सुबह फिर मेरी नींद नहीं खुली थी। देर रात तक पढ़ा था। अचानक चिड़िया की झुंझलाहट भरी चहचहाट ने जगा दिया। पलंग के सिरहाने बैठी वह चिड़िया मुझे गुस्से से देख रही थी, मानो मेरे देर तक सोने के कारण वह मुझसे नाराज हो। मैं थोड़ी देर उसकी चहचाहट का आनंद लेता रहा। उसने मेरी रजाई का कोना चोंच से पकड़ कर खींचा, वह मुझसे जरा भी डर नहीं रही थी। वह रजाई के उस हिस्से पर आ बैठी जो मेरे सीने पर था। उसका इस तरह मेरे ऊपर आना बहुत अच्छा लगा रहा था। 
पंतजी की वीणा में लिखी पंक्तियां मानस में तैरने लगी :- 
'' तूने ही पहले बहुदर्षिनी, गाया जागृति का गााना,
श्री-सुख सौरभ का नभ चारिणी, गूॅथ दिया ताना बाना,                 
खुले पलक, फेली सुवर्ण छवि, खिली सुरभि, डोले मधुबाल,
स्पंदन कंपन ओ' नव जीवन, सीखा जग ने अपनाना। 
सचमुच उस सुबह पलके खुलने पर ऐसा ही लगा कि जैसे किसी ने जागृति का गीत गाया हो। उस नभचारिणी ने सचमुच श्री सुख सौरभ का तानाबाना उस सूने कमरे में गूंथ दिया था। ऐसी एक सुवर्ण छवि कमरे में छायी थी, जिसे पहले कभी महसूस नहीं किया था। स्पंदन और कंपन में नव जीवन उतर आया था। उस सुबह चिड़िया ने मेरी रजाई का कोना अपनी चोंच से खींचकर अपनी चहचहाट से जगाया था। बचपन में इतने ही प्यार और इतनी ही झुंझालाहट से देर तक सोने पर मॉ जगाती थी। मैं अपने चारो और फैले हुए उस श्री सुख सौरभ की स्वर्णिम छवि से अभिभूत होकर जागा था। 
मैने उठकर दरवाजा खोला तो वह चिड़िया बाहर निकल कर चली गयी। अब यह रोज ही की बात हो गयी थी। सुबह चिड़िया को कमरे से बाहर जाना होता था, वह बहुत जल्दी जग जाती और दरवाजा खुलवाने के लिये मेरे पलंग के सिरहाने बैठकर चहचहाती और मेरी नींद खुल जाती। 
जब मैं अपनी बंद कोठरी की शय्या को छोड़कर भोर में चिड़िया को बाहर जाने देने के लिए दरवाजा खोलता तो खुले दरवाजे से उस ताजी सुबह की देह की कांति कमरे में कौंध जाती। ठंडी हवा का स्पर्ष और बहुत कोमल कांत उजाला मेरे अलसाई ऑखों को सहलाता। मुझे लगा किसी अप्रतिम अनुभव को मैं देर तक सोकर व्यर्थ करता रहा हूॅ। 
अब भी मैं रात को देर तक पढ़ता था, परंतु अब वह चिड़िया मेरी अलार्म घड़ी थी जो मुझे अपने साथ सुबह जगा लेती थी। अब वह पलंग के सिरहाने, या मेरी रजाई पर बैठकर चहचहा कर मुझे मधुर चहचहाट से जगाती थी, उसकी चहचहाट में अब वह झुंझालाहट नहीं, एक वात्सल्य भरी जागृति थी। वह किसी घड़ी की यांत्रिक ध्वनि नहीं थी, वह अपनेपन से भरी पुकार थी जो मुझे आसमान से अवतरित होती हुई प्रात: काल की सुमंगल घड़ी में पुकारती थी। उस सुमंगल घड़ी में सरिताओं के जल, आकाष का वायू, सूर्य का प्रकाष ये सब अपनी निर्मलता के चरम पर पहुंचकर सृष्टि मे नये फूल खिलाने के उपक्रम करते हैं। 
अब मै चिड़िया के साथ जगना सीख गया था, और सुबह की उष्मा ताजगी और पुष्पांविति का वरदान पाने लगा था। 
रवीन्द्रनाथ ने अपनी जीवन स्मृति में सच ही लिखा है ''........... मैं देवदार के जंगलों में घूमा, झरनों के किनारे बैठा, उसके जल में स्नान किया, कांचन श्रंगा की मेघ मुक्त महिमा की ओर ताकता बैठा रहा- लेकिन जहॉ मैने यह समझा था कि पाना सरल होगा वहीं मुझे खोजने पर भी कुछ ना मिला। परिचय मिला, लेकिन और कुछ देख नहीं पाया। रत्न देख रहा था सहसा वह बंद हो गया। अब मैं डिबिया देख रहा था। लेकिन डिबिया के ऊपर कैसी ही मीनाकारी क्यों न हो उसको गलती से डिबिया मात्र मानने की आषंका नहीं रही।''
सच है एक बार रत्न दिख गया फिर भले ही डिबिया बंद हो जाए, पर उस डिबिया में रत्न है यह अनुभूति नहीं जाना चाहिए। रवीन्द्रनाथ की इन पंक्तियों में डिबिया की मीनाकारी का भी जो उल्लेख है वह महत्वपूर्ण हैं।
उस चिड़िया ने डिबिया खोलकर मुझे भी उषा सुंदरी के रत्न दिखा दिये थे। उसका यह उपकार में भला कैसे भूलता ? दरवाजा खोलते ही चिड़िया चहचहाती हुई बाहर जाती, मानो मुझें कहती हुई जा रही हो कि देखो यह मीनाकारी वाली सुंदर डिबिया खुल रही है, इसके भीतर के रत्न को जल्दी देख लो, फिर यह बंद हो जाएगी। फिर तो दिनभर यह मीनाकारी से सजी डिबिया ही दिखाई देगी इसके रत्न नहीं दिखेगे। 
मैं उस वात्सल्यमयी चिड़िया के उस उपकार को बहुत कृतज्ञता से महसूस करता हूॅ। उसने मुझे उस घड़ी जगना सिखाया जब धरती ओंस के मोती बिखराकर हर नये खिल रहे फूल का अभिनंदन कर रही होती हैं। 
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