Saturday, August 8, 2009

यादों के उजाले ....

संस्मरण " यादों के उजाले "
गोविंद कुमार ''गुंजन''

यादें यदि उजाले जैसी हो तो हृदय उनसे जगमगा ही उठेगा और अगर बर्छियों जैसी हैं तो उनसे बिंध कर मन छलनी होगा ही । वास्तव में यादें इन दोनों जैसी ही होती हैं, उजाले जैसी ही और बर्छियों जैसी भी । आपका मन हमेशा यादों के उजालों से जगमगा नहीं सकता, पर उसकी बर्छियों सी टीसें कभी भी उठ सकती हैं । यादों से मुक्ति कोई आदर्श स्थिति नहीं है। उसके दंशों के बावजूद उसके उजाले कीमती होते हैं । इस उजाले की कीमत यदि कुछ दंश भी हों तो यह सौदा महॅगा नहीं है।
एक यात्रा प्रसंग में मेरी मुलाकात गुजरात के एक युवा व्यापारी जयेश भाई से हुई । सरलता, मिलनसारिता और सहज आत्मीयता के कारण वह बहुत जल्दी घुल मिल गये । उनकी निश्चिंतता और उद्वेगरहितता आकर्षक थी । अपने जीवन की एक घटना उन्होंने बताई । उनका बचपन बहुत निर्धनता में बीता था । कई बार एक टाईम भी चूल्हा घर में जला तो जला नहीं तो उपवास । ऐसे ही संकट के दिनों में जब घर में कुछ नहीं था तथा सब भाई बहनें माता-पिता भूखे प्यासे ही थे । घर में उदासी और विवशता का अंधेरा दिन के उजाले को मंदा कर रहा था। अचानक एक अतिथि दूर गॉव से यात्रा करते हुए उनके घर पहुॅचा । पूर्व परिचित होने से मिलने चले आये अतिथि ने पहुॅचते ही जयेश भाई के पिता से कहा -''बड़ी भूख लगी है, बिना औपचारिकता के घर में जो भी बना हो चल जायेगा । आप तो खाना खिलवाईये । अजीब स्थिति बन गई । अतिथि से कैसे कहें , कि घर में कुछ नहीं है ।
प्रतिष्ठा मध्यमवर्गीय लोगाें के लिए बड़ा बोझ होती है । उनकी कमजोर गर्दनें उसका भार सह नहीं पाती, पर फिर भी वह अपनी प्रतिष्ठा और अपनी इज्जत अपने सर पर ढोते ही रहते हैं। गर्दन भले ही टूट जाये पर अपनी बात हल्की नहीं होनी चाहिए, किसी के सामने घर की इज्जत कम नहीं होनी चाहिए, घर की बात किसी के सामने नहीं जाये, इस चिंता का संकट उनके लिये अपनी दरिद्रता के संकट से भी भारी होता है। उनका मकान जरूर पुश्तैनी था । एक हिस्से में जयेश भाई के ताऊ रहते थे । उनकी आर्थिक हालत थोड़ी ठीक थी । जयेश भाई के पिता ने अतिथि को बैठाया और भीतर के दरवाजे से बड़े भाई के पास पहुॅचे । मुसीबत बताई। बड़े भाई ने थोड़े चावल और दाल उधार दिये ।
जयेश भाई की मॉ ने अतिथि के लिये उस चावल से खिचड़ी पकाई । जब खिचड़ी पक गई, और अतिथि को परोसी जा रही थी तभी ताई बड़े गुस्से से भीतर आई, और परोसी हुई थाली उठाकर अतिथि के सामने ही पूरे परिवार पर जोरों से चिल्लाई - ''मेरे घर में तुम्हारे जैसे फालतू लोगों के लिये मुफ्त का अनाज भरा हुआ नहीं है । आवेश से तमतमाई हुई ताई तो चीख पुकार कर चली गई, पर अतिथि के सामने बेईज्जत हुआ पूरा परिवार जमीन में लज्जा से गड़ गया ।
इस समय जयेश भाई की उम्र पंद्रह-सोलह साल थी । परिवार में दो बड़ी बहनें, और एक छोटा भाई, सब इस बात से आहत थे, पर जयेश भाई के किशोर मन ने उसी क्षण कुछ तय कर लिया । ताई के क्रोध पर क्रोध न करते हुए, उन्होंने अपनी दरिद्रता की अनिवार्यता को मन ही मन नकार दिया । शुरू में उन्होंने फलों के व्यापार से छोटा मोटा काम शुरू किया और अपनी मेहनत, ईमानदारी और अच्छे व्यवहार से उन्होंने अपने व्यापार में बड़ी सफलता पायी । आज जयेश भाई पचास वर्ष के हैं । उनके पास अपना खुद का घर है, कार है । फलों के उनके अपने कुछ बगीचे हैं । बच्चे अच्छी स्कूलों में पढ़ रहे हैं । घर में सुख शांति है पर अब


-2-
ताऊ की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं रही । ताऊ के लड़के जिम्मेदार नहीं निकले । परंतु जयेश भाई आज भी अपने ताऊ और ताई की बड़ी इज्जत करते हैं । हर काम में उनकी मदद करते हैं । सहारा देते हैं । अपनी मॉ से बढ़कर ताई को प्रतिष्ठा देते हैं । कहते हैं - '' उस दिन यदि ताई ने ललकारा न होता तो शायद मन में आगे बढ़ने की इतनी उद्दाम इच्छा ही नहीं जगती ।
जयेश भाई ने अपनी उस याद को अपने लिये एक उजाला बना लिया, इसलिये इसकी रोशनी से जगमगाता हुआ उनका मन प्रसन्न दिखाई देता है। कोई और होता, तो ताई की कटुता और अपमान को मन में घाव की तरह पालता । उसे नफरत का नासूर बना लेता । पर ऐसा नहीं हुआ । उस अपमान को उन्होंने अपमान नहीं एक चुनौति की तरह स्वीकार किया । और यही चुनौति उन्हें आगे ले गई जहॉ उन्हें अपनी दरिद्रता को पराजित करने की शक्ति मिली।
व्यक्ति व्यक्ति में फर्क होता है मन की बनावट का । यही फर्क महत्वपूर्ण है । व्यक्तित्व की जड़ों में यही फर्क काम करता है ।
---

No comments: