समुंदर
गोविंद कुमार ''गुंजन''
बाबा ने हॅसते हुए पूछा
जानते हो समुंदर खारा क्यों है
फिर बताने लगे
अगस्त ने अपने चुल्लु से भरकर
पी लिया था पूरा समुद्र
फिर घबराई हुई दुनिया पर रहम कर के
इसे निकाल दिया बाहर पेशाब के जरिये
तभी से समुद्र खारा है
मगर ये खारापन एक इशारा है
जिसे तुम नहीं समझते/समझदार होने के बावजूद ।
जवानों ने शोर किया
झूठ झूठ ... सफेद झूठ
हमको समझाते हो क्या कोरे ठूठ !
कोई पी सकता है भला,
समुद्र को चुल्लु में भरकर
झूठ बोलो, मगर थोड़ा तो ड़र कर !
बाबा ने हॅसते हुए कहा
अगस्त तो बड़े आदमी थे
मैं तो उनके सामने कुछ भी नहीं
पर मैं भी तो पी जाता हूँ
पूरा आकाश अपने गिलास में भर कर
बार बार जनमता हूँ बार बार मर कर
आकाश तो समुंदर से भी बड़ा है
पर उसे मेरे जैसा मामूली आदमी तक पी जाता है
तो अगस्त के लिए कौन सी बड़ी बात थी
चुल्लु में समुंदर को पी जाना ?
याने एक पल में अनंत काल को जी जाना !
देखों जैसे अगस्त का/ यह उर्त्सजित समुंदर खारा है,
वैसे ही
मेरा भी बार बार पीकर, बार बार उगला हुआ
यह आसमान नीला है
भीतर का नमक ही नहीं/ भीतर का जहर भी बाहर आता है
पर कौन समझ पाता है ?
कूप मण्डूक
जाओ हॅसों,
तुम्हारी कृपा से देखा आसमान
और
फिर आसमान से गिरना भी !
बच्चों की ऑखों में
उस दिन कौतुहल था
इतना प्यारा कौतुहल
कि मैं रोक न सका खुद को
मैं उन्हें बताना चाहता था
कूप और आसमान के बीच का
एक खाली, मगर
भरा भरा एहसास
मगर
आसमान का नियम
हॅसों के लिए और
और मण्डूक के लिए कुछ और है
और , ये फर्क भी काबिले गौर है
कि चुप्पी तोड़ते ही
गिर जाना है उसे आसमान से नीचे
जाओ हँसों,
जाओ पर वहॉ नहीं है पानी
जहाँ तुम जा रहे हो
कूप से दूर ।
कल
वही कौतुहल से भरे बच्चे
उलट पुलटकर धरती का हर कूप
तलाशेगें पानी,
उस वक्त
आसमान से गिरकर भी उन्हें बताऊंगा टर्राकर
शायद वो रह जाए - थर्राकर
मगर यह सच बताना ही होगा
कि कूप और आसमान के बीच
फैली है विराट शून्यता
एक खाली जगह है जहाँ
एक लकड़ी है सूखी,
दो हंसों ने थाम रखी है
उधर
एक पागल हंसता है तो
खून उगलती है उसके मुॅह से
उसकी आंते भूखी ।
कल
वही कौतुहल से भरे बच्चे, भटकते हुए
गुजरेंगे इधर से
शायद किसी डगर से
तब मैं टर्रा के कहूँगा उनसे
कम ही सही
थोड़ा ही सही
मगर कूप ही मिटाएगा तुम्हारी प्यास
नहीं वह आकाश
नहीं वह समुंदर
जिसे तुमने समझ रखा है खास ।
&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&
पत्ते पर
ठहरी हुई ओंस,
ठहरे रहने के सुख से ओत प्रोत है
एक क्षण होता है
जहाँ ठहरे रहनें का सुख
इतना तीव्र होता है कि, सुख
संभल नहीं पाता और ठहर नहीं पाता
पर कौन है ऐसा
जो इसकी खातिर
अपनी ज़िंदगी का ज़हर नहीं खाता ?
पत्ते पर
ठहरी हुई ओंस लीन है,
पत्ते के साथ एक समागम में
यह अभी ढर जाएगी
पर वह जानती है कि
इस पल में, वह जिन्दगी जी जाएगी
भले ही लोग समझे तो समझे
कि वह मर जाएगी
&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&
नदी का आइना
नदी
एक आइना थी
जो मेरे बार बार पत्थर मारने पर भी टूटती नहीं थी
नदी एक आइना थी
कड़ी धूप में भी जिसकी कलई छूटती नहीं थी ।
नदी में एक कछुआ था
जो आइने पर लगे धब्बे की तरह थिर था
कभी अपने बिंब से बाहर निकलकर वह ओझल,
कभी रेत पर फिर था
नदी ठहरी र्हुई थी
मगर उसका आइना बह रहा था
स्तब्ध था पुल मगर
उसका प्रतिबिंब ढह रहा था ।
सूरज की किरण
निकल जाती थी आर पार
कभी बंद नहीं होता था नदी का द्वार
मुझे तो खुले दरवाजे भी रोक लेते हैं
गूंगे शब्द भी टोक देते हैं
एक बार फिर मैंने कोशिश की
मगर मेरा पत्थर बेकार गया
नदी का आइना झनझनाया,उछला,
मगर टूटा नहीं
मैंने यह आइना
अपने मन के आइने को दिखाया
पता नहीं
उस आदतन बिसूरने वाले को
कुछ समझ में आया
या नहीं आया ?
&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&
वैसी ही कोई चीज
जैसे ढेर सारी बतखे तैरती है तालाब में
और हर बतख के चेहरे पर
हमें महसूस होती है हॅसी बगैर उनके हॅसे
वैसी ही कोई चीज़
मैं चाहता हूं हमारे और तुम्हारे चेहरें पर
वैसी ही किसी चीज की बदौलत
हम सख्त जमीन पर भी तैरते हैं
और कभी डूबते नहीं
जैसे ढेर सारे परिन्दे
देर तक आकाश में उड़ते हैं
फिर बैठ जाते हैं किसी डाल पर
और हमें किसी भी परिन्दे के चेहरें पर
दिखाई नहीं देती थकान
या कोई उदासी
वैसी ही कोई चीज
मैं चाहता हूॅ
हमारे और तुम्हारे चेहरे पर
चाहे हम कहीं से भी उड़ कर आएं
और किसी भी डाल पर बैठ जाएं
क्या बतखे उदास नहीं होती
या चिड़ियाएं कभी थकती नहीं ?
मगर वह उदासी
मगर वह थकान
तन में पैदा होती है अंदर
और मन से टपक जाती है बाहर
जैसे तन से मन के बीच
कोई सुराख हो सीधा
तन का सुराख
मन के अंदर खुलता है और
मन का सुराख ठीक हवाओं में खुलता है
ठेठ बाहर की ओर
अक्सर तो यह होता है कि
तन की थकान, वक्त की मायुसी और
ज़ख्मों के दर्द
तन से बहते हुए उतर जाते हैं मन में
और हमारे मन के पास
बाहर हवाओं में खुलने वाला
कोई सुराख नहीं होता
इसीलिए हर चीज़ जमा होती रहती है
तन से बहकर मन में
मगर
जैसा कि बतखों में होता है
जैसा कि उन चिड़ियाें में होता है
वैसा ही कोई सुराख
जो तन से मन में खुले और
मन से बाहर हवाओं में
ऐसी ही कोई चीज़
मैं चाहता हूँ हमारे तुम्हारे वास्ते ।
&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&
वह मुस्कुराहट
उसके होठों पर
एक मुस्कुराहट है
गुलाब की पंखुड़ियों पर ठहरी हुई
सूरज की एक झिलमिलाहट जैसी
उसने मुझे
वो अपनी मुस्कुराहट लेने दी
पूरी की पूरी
मैं यह नहीं कह सकता कि वह मुस्कुराहट
उसने मुझे दी
मैं तो कृतज्ञ हूॅ ंकि उसने
देने के बजाय मुझे लेने दी अपनी वह मुस्कुराहट
अपनी कोई चीज़ देना
एक इच्छा है
एक खुशी है देने वाले की
जबकि अपनी किसी चीज को लेने देना
एक सहमति है, यह एक सहज समर्पण है
यह एक सहज स्वीकृति है ले लेने वाले के साथ
देने में, देने वाला एक नायक है
और लेने वाला ग्राहक
ले लेने देने में
देने वाला एक निर्विरोध माध्यम बन जाता है
लेने वाले को डूबो देने का
इसीलिए
उसने मुझे अपनी मुस्कुराहट को लेने दी
पूरी की पूरी
जैसे फूल विरोध नहीं करता
जब कोई उसकी खुशबु को पीता है
वह उसे पीने देता है निर्विरोध
ठीक ऐसे ही
उसने अपनी समुची मुस्कुराहट को
मुझे लेते रहने दिया
निर्विरोध अपनी पूरी भाव प्रवणता के साथ
मैं उसकी समूची मुस्कुराहट में
पूरी तरह डूब गया
अपने पूरे व्यक्तित्व के साथ
अपनी पूरी आत्मा के साथ
अब वह मुस्कुराहट
मेरे ऑगन में फैली है
जैसे सर्द सुबहों में
कुनकुनी धूप फैली हो
अब वह मुस्कुराहट
मेरी टेबल पर रखी है जैसे
रातों की नीरवता में
रोशनी फैलाता हुआ
रखा हुआ हो कोई खूबसूरत टेबल लेम्प
अब वह मुस्कुराहट
मेरी जिन्दगी के हरे पड़ते हुए पीतल पर
अभी अभी की गइ्र ''कलई'' की तरह है
जिसकी वजह से
मेरी जिन्दगी के कटोरे की खटास भी
अब खराब नहीं होती
वह स्वादिष्ट बनी रहती है
किसी दही की तरह ।
&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&
वक्त
उसका चुराया हुआ माल कभी हो सका न जप्त
हमारे भीतर से अपने ही आप को चुराता रहता है वक्त,
हमें लगता है कि वह बीता जा रहा है
मगर वह कभी बीतता नहीं
उसके भीतर कुछ नहीं है
मगर वह कभी रीतता नहीं
एक दिन हम ही बीत जाते हैं
और धरी रह जाती है दिमाग की सारी खप्त
हमारे भीतर से
अपने ही आपको चुराता रहता है वक्त
गर्भ से बाहर छलॉग लगाता हुआ बच्चा
छलॉग जाता है एक लक्ष्मण रेखा
इसलिए जलते रहने के लिए बचा रहता है ,
गुजरना होता है अग्नि परीक्षाओं से
कोई मंज़िल नहीं, कोई रास्ता नहीं
मगर बंद नहीं होती आमदो-रफ्त
हमारे भीतर से
अपने ही आपको चुराता रहता है वक्त ।
&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&
पिता तुम आकाश थे
पिता तुम आकाश थे
तुम्हारी गोद में उड़ने का अवकाश था मुझे
तुम्हारे सीने से उगता था सूरज
और तुम्हारी हॅसी में स्निग्धता थी चॉदनी की
ऋतुएॅ बदलती थी
मुसीबतें आती थी
बरसात के दिनोें में टपकती थी छत
गीली लकड़ी चूल्हे में जलती थी कम
धुॅआ ज्यादा देती थी
तुम हर चीज़ को ठीक कर देते थे
सारी तकलीफों को अपने सीने में समेट कर
तुम तने रहते थे छाया बनकर
तुम्हारा अविचलित रहना
फूलाें का मौसम ले आता था
मुसीबतें टल जाती थी
तुम्हारी छाया तले
हम ऍकुराए, ऍखुआए
तुमने निराई हमारी खरपतवारें
ताकि हम पौधों की तरह समूचे लहलहा सके
हमारे वास्ते
तुम इन्द्र बनकर लाए मेघों का अमृत
हमारी जड़ों को अपनी धूप से सहलाकर
अपने मचानों पर तुम जागते रहे रात रात भर
तुम्हारी बदौलत
हम पेड़ बने छायादार
हमारी डालों पर फूल खिले फल आये
बचपन में हम सोचते थे
काश कोई सीढ़ी होती
जिस पर चढ़ते चढ़ते हम छू आते आसमान
अब बहुत उड़कर जाना
कि हम कितना भी उड़े
तुम्हारी ऊॅचाई तक नहीं पहुॅचा जा सकता कभी
कहीं नहीं है कोई ऐसी सीढ़ी
जो इतना ऊॅचा हमें ले जा सके
कि हम तुम्हें छू सके पिता
तुम आकाश थे
तुम आकाश हो हमारे जीवन पर छाये हुए
तुम्हारी सृष्टि में
सब कुछ क्षमा है हमें
तुम्हारी तितिक्षा में
सर्वथा रक्षित हैं हम
उड़ते रहते हैं खुशी खुशी
निरापद निर्भय कहीं भी
कभी भी ।
&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&
No comments:
Post a Comment