Sunday, September 6, 2009
नदी का आइना
नदी का आइना
नदी
एक आइना थी
जो मेरे बार बार पत्थर मारने पर भी टूटती नहीं थी
नदी एक आइना थी
कड़ी धूप में भी जिसकी कलई छूटती नहीं थी ।
नदी में एक कछुआ था
जो आइने पर लगे धब्बे की तरह थिर था
कभी अपने बिंब से बाहर निकलकर वह ओझल,
कभी रेत पर फिर था
नदी ठहरी र्हुई थी
मगर उसका आइना बह रहा था
स्तब्ध था पुल मगर
उसका प्रतिबिंब ढह रहा था ।
सूरज की किरण
निकल जाती थी आर पार
कभी बंद नहीं होता था नदी का द्वार
मुझे तो खुले दरवाजे भी रोक लेते हैं
गूंगे शब्द भी टोक देते हैं
एक बार फिर मैंने कोशिश की
मगर मेरा पत्थर बेकार गया
नदी का आइना झनझनाया,उछला,
मगर टूटा नहीं
मैंने यह आइना
अपने मन के आइने को दिखाया
पता नहीं
उस आदतन बिसूरने वाले को
कुछ समझ में आया
या नहीं आया ?
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