Sunday, September 21, 2008

खिसल पट्टी (कविता)-------- गोविंद कुमार "गुंजन''

खिसल पट्टी -------- गोविंद कुमार "गुंजन''

बच्चे खेल रहे हैं पार्क में
खिसल रहे हैं खिसल पट्टी पर
मां-बाप खुश हो रहे हैं

नगर पालिका
नये नये नागरिक गढ़ रही है ,
युगानुरूप समाज की नींव पड़ रही है
बचपन से ही सिखाया जा रहा है कि
ऊचे जाने के बाद नीचे फिसल जाने में क्या मजा आता है

बच्चा बढ़ता जाता है
खिसल पट्टी का रूप बदलता हुआ पाता है
कभी खिसल पट्टी कुर्सी मे तब्दील हो जाती है
कभी चरित्र कभी संस्कृति कभी रिश्ते में

धन्य है यह नागरी सभ्यता
जो फिसल जाने को भी खेल बना देती है
यह खिसल पट्टी
एक क्षण भी रूकी हुई नहीं है ,
इसलिए
इस पूरी सदी के फैले हुए नर्क में
इतनी गिरावट के बावजूद
आदमी की ऑखें झुकी हुई नहीं है ।

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