Saturday, December 25, 2010

मन के प्रतिबिंब और सोच के उभयदंश

मन के प्रतिबिंब और सोच के उभयदंश
गोविंद कुमार 'गुंजन'
आदमी की जाति -
मेरी दृष्टि में जाति का अर्थ स्वभाव से ज्यादा और कुछ नहीं है । जीवन में हर चीज लाभ हानि के तराजू पर तौलने की वृत्ति , आदमी के स्वभाव में हो तो चाहे वह किसी भी जाति में जन्मा हो उसका स्वभाव वैश्य का स्वभाव है । ज्ञान की पिपासा ही ब्राम्हण स्वभाव है, चाहे वह क्षत्रिय होकर जन्मा हो । विश्वामित्र क्षत्रिय कुल में जन्मे ब्राम्हण थे । शंबूक शुद्र कुल में जन्मा ब्राम्हण था । दुर्भाग्य से आज की मनुष्यता यह भूल चूकी है कि जाति का अर्थ मूलत: स्वभावगत होता है ।
मेरा समाज -
व्यक्ति का समाज बह ुआयामी होता है । अक्सर व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है, उसको अपना समाज समझता है, परंतु यह एक अर्धसत्य है । एक समाज वह है जहां उसकी जड़े हैं, और दूसरा वह आकाश है, जहां से वह अपने हिस्से की धूप ,हवा,और पानी जुटाता है। जहां वह अपने रोजगार के कारण जुड़ जाता है । वह समाज उसके जीवन पोषण के लिये एक आकाश निर्मित कर देता है, और जहां वह अपने ''स्व-भाव'' से जुड़ जाये वहां उसकी जड़े पनपती रहती है । कष्टप्रद बात यह है कि रोजगार के निमित्त वह धीरे धीरे अपने उस आकाशी समाज में इतना फैल जाता है कि अपनी जड़ों के उखड़ जाने का भी उसे एहसास तक नहीं होता । एक कमरे में किसी बोटल में लगे ''मनी प्लांट '' की तरह वह बिना जमीन से जुड़े जीना सीख जाता है । एक दीवार के सहारे को , एक छत भर छाया को , वह अपना संसार समझने लगता है । इस तरह एक कृत्रिम दुनिया में वह जीता चला जाता है । यदि समाजशास्त्री सही है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तो शायद मेरा यह सोचना भी ठीक ही होगा कि आदमी एक नकली समाज में जीना सीख गया है । वह अपने असली समाज से बेदखल है, और उसे इस बात का एहसास भी नहीं बचा कि कभी उसकी भी कुछ जड़े थी । उसका अपने ''मूल'' से विच्छेद होना एक भीषण दुर्घटना है, परंतु अपनी इस दुर्घटना को भी वह इस तरह अनदेखा करते हुए आगे बढ़ जाता है , जैसे सड़क पर पड़े किसी दूसरे दुर्घटना ग्रस्त व्यक्ति को अनदेखा कर वह कई बार अपने आप को झंझट से बचा ले जाने के ख्याल से चुपचाप आगे चल दिया था । कई बार अपने इस सामाजिक नकलीपन को महसूस करने की पीड़ा ने शायद मुझसे यह पंक्तियां लिखवायी थी-
''नकली दवा जहर है , हलाहल है नकली प्यार !
यहां तो सभी चीजें नकली है,यहां से चला ही चल यार ॥
अपने अपने हिस्से का समाज -
हर व्यक्ति के हिस्सें में अनिवार्य रूप से समाज का एक टुकड़ा आता ही है । जैसे मनुष्य किसी कुल किसी जाति या अपनी पसंद के मां बाप के यहां जन्म लेने को स्वतंत्र नहीं है, उसी तरह वह अपने हिस्सें का समाज भी अपनी पसंद के अनुरूप चुन सकने के लिए स्वतंत्र नहीं है । मेरे हिस्से में मेरे दफ्तर के लोग , मेरे मुहल्ले को लोग, मेरी जाति,कुल और रिश्ते के लोग सभी मेरी पसंद से नहीं आ सकते ।
वास्तव में समाज का एक बड़ा रूप वह भी है जिसमें आदमी का रूप किसी धर्म ,किसी जाति या मजहब को आईने में देखा ही नहीं जा सकता । उदाहरण के लिये बाजार में अपनी दुकानें लगा कर बैठा हुआ व्यापारी एक समाज है । इस समाज में सारे व्यापारी एक है । चाहे वह हिंदु व्यापारी हो, या मुसलमान व्यापारी। वह सिंधी व्यापारी हो या पारसी हो या बोहरा

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हो, या जैन हो, वह सब एक ही जाति का समाज है । बस दुकानों के नाम अलग अलग है । मगर भीतर से कोई बड़ा फर्क नहीं । धीरे धीरे सभी समाजों का इसी तरह बाजारीकरण हो जाता है । यह बाजारीकरण मनुष्य का वस्तुकरण्ा कर देता है । धीरे धीरे मनुष्य का भीतरी व्यक्ति गुम हो जाता है , और वह एक दूसरे के उपभोग अथवा शोषण की वस्तु में तब्दील होता चला जाता है । यह हमारे सामाजिक जीवन का अभिशाप है, और सामाजिक प्राणी होने के नाते अपने अपने हिस्सें में आये हुए समाज के एक अनिवार्य हिस्से का अभिशाप भोगने के लिये हर व्यक्ति बाध्य हों जाता है ।
कम कहे गये सच -
हमारे जीवन के सामाजिक आर्थिक, राजनैतिक , धार्मिक-सांस्कृतिक और साहित्यिक सभी मुद्दों से जुड़े ऐसे बहुत से कम कहे गये सच है, जिन्हें कहने, सुनने अथवा मान लेने पर आदमी अपने आप को नंगा महसूस करता है । शायद इसीलिए ये सच कम कहे गये है ।
लकड़ी के कृत्रिम पैर (बैशाखियां ) लगा कर चलती हुई हमारी ये अपाहिज वृत्तियां अपना मूलाधार खोने का शायद की कोई संताप करती हो । संभव है किसी दिन आदमी महसूस करे कि उसका काम अपनी जड़ों के बगैर नहीं चल सकता । वस्तुत: व्यक्ति का स्वभाव नितांत ही व्यक्तिगत स्थिति है, और वही उसका वास्तविक परिचायक भी है । यदि कवि होकर भी कोई प्यार को सिर्फ मन का एक भाव ही समझता रहे, तो वह कवि नहीं सिर्फ एक व्यापारी ही है । फिर उसके भाव (मूल्य) चाहे कितने ही ऊंचे क्यों ना हो ! उसकी कविताओं के संग्रह अकादमियों से पुरस्कृत ही क्यों ना हो रहे हो, वह कवि नहीें है ,इतना निश्चित है ।
अकादमियों से पुरस्कृत हो जाना बड़ी बात नहीं है । बड़ी बात है आदमियों से पुरस्कृत होना ।
कविता की तलाश -
कभी कभी आदमी के जीवन में ऐसा बहुत कुछ आता है जो कविता जैसा होता है । यह ''कविता जैसा कुछ'' किसी कवि के ही जीवन में ही यह जरूरी नहीं होता । यह किसी के जीवन में भी हो सकता है ।
अक्सर इस ''कविता जैसे कुछ'' को कुछ लोग शब्दों में बांध लेने में कुशल हो जाते हैं। वह उसे शब्दों से ही उठा पाते है, पर मुझे इससे संतोष नहीं होता । मुझे उस ''कविता जैसी कुछ चीज'' में कोई रस नहीं है । मेरा रस तो सिर्फ कविता में है । ''कविता जैसी किसी दूसरी चीज में नहीं । मेरी कठिनाई बहुत बड़ी है । मैं कविता को शब्दों से नहीं,सीधे सीधे हाथों से उठा लेना चाहता हूं । मुझे रास्ते चलते भी कविता राह में पड़ी हुई मिल जाती है, परंतु जब मैं उसे उठाने के लिये झपटता हूं तो जैसे कोई किसी अदृश्य जगत से विपरीत परिस्थितियों की एक बैंत सी मेंरे हाथों पर मार देता है । यह बेंत इतनी मजबूत है कि मेरे हाथों को सुजा देती है,जख्मी कर देती है,मुझे तिलमिला देती है ।
इस सूजे हुए और दुखते हुए हाथों से मुझे अपने जीवन की ठेला गाड़ी भी खींचना है, और राह में पड़ी हुई कविता भी उठानी है ।
ग़में रोजगार -
गालिब ने कहा है : ''ग़में इश्क ना होता तो गमे रोज़गार होता ।'' मैं लगभग 21 वर्ष की आयु पूर्ण करते ही ग़मे रोज़गार को गले लगा चुका था । इसके पहले ग़मे इश्क तो काफी सर चढ़ चुका था। यह इश्क कविता के रूप में पूरी तरह नस नस में फैल चुका था । गमे रोजगार

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और ग़मे इश्क में मेरी कविता की जो क्षति हुई वह मेरी परम निजी क्षति है इसकी पूर्ति इस जन्म में संभव नहीं है । रोजगार को और अपने काम को पूजा का दर्जा देना दर्शन और अध्यात्म की देन है । परंतु पूजा करने के लिये पुजारी को जिस मानसिक भाव भूमि की अनिवार्यता होती है, उसे खंडित करने वाले ऐसे बहुत से तत्व भी होते हैं जिनका प्रतिकूल प्रभाव नकारा नहीं जा सकता ।
सौभाग्य से मेरे रोज़गार ने मुझे अपना बोझ, खुद उठाने लायक तो बना दिया, परंतु परिस्थितियॉ मुझे सिर्फ बोझा उठाने वाला बनाकर ही छोड़ना चाहती है । किसी ने कहा है- -''इन दिनों अजीब है कवि का धंधा, है दोनों चीज़ें व्यस्त, कलम और कंधा । ''
ग़मे इश्क -
''प्र्रेम मद छाके पग परत कहॉ के कहॉ / थाके अंग नैननि सिथिलता सुहाई है / कहै रतनाकर यौं आवत चकात ऊधो / मानौ सुधियात कोऊ भावना भुलाई है / धारत धरा पै ना उदार अति आदर सौं/ सारत बहोलिनी जो ऑस अधिकाई है ।
एक कर राजै नवनीत जसुदा को दियौ / एक कर बंशी बर राधिका पठाई है''
(उध्दव शतक : रत्नाकर )

बृज से लौटते समय उध्दव को यशोदाजी ने एक दोना माखन कृष्ण तक पहुॅचाने के लिये दिया था और राधाजी ने कृष्ण की अमानत उनकी बॉसुरी भिजवाई । प्रेम मगन उध्दव प्रेम की मदिरा से मस्त डोलते हुए लौटे, किन्तु अति आदर के कारण, वह रास्ते भर न कहीं वह नवनीत नीचे धरते हैं ना बॉसुरी । दोनों हाथों में दोनों चीज़े संभाले, विश्राम के समय भी तनिक उन्हें नीचे ना रखना यह उध्दव की प्रेम यात्रा की कठिनाई थी । परंतु इस यात्रा में उध्दव सौभाग्यशाली हैं कि उन्हें सिर्फ कन्हैया के नवनीत और बॉसुरी को ही संभावना था । उन्हें और अन्य कुछ नहीं संभालना था । खुद को भी वे बस इसलिये संभाल रहे थे कि कहीं हाथों से वह नवनीत छलक ना जाये । और राधाजी के हाथों प्रेषित कन्हैया की अमानत सादर कन्हैया तक पहुॅचा सके ।
परंतु उध्दव जैसा सौभाग्य सभी को नहीं मिलता । अब नये युग के उध्दव को अपने ग़मे रोजगार से जूझने के लिये अपने दो हाथ भी कम पड़ते हैं । बेचारा वह नवनीत और बॉसुरी की अमानत को ठीक से कैसे संभाले । ठीक से वह बॉसुरी और नवनीत को संभाल नहीं पाने की विवशता से दुखी और उन्हें अक्सर नीचे रख देने को बाध्य करती हुई परिस्थितियों से जूझना, नये युग के उध्दव की बड़ी कठिनाईया हैं ।
ग़में इश्क (मेरा कविता का प्रेम) और ग़मे रोज़गार अर्थात रोज़मर्रा जीवन के वो सारे कटु सच जो रिश्ते नाते दोस्ती संबंध सभी दरका दे, अब इन दोनों के बीच कोई सुविधा जनक पुल की तलाश में भटकते भटकते मेरे पैर भी घिस घिस कर छोटे होते जा रहे हैं । हर बार इस कद के घटते जाने की अपमान जन्य पीड़ा से अपनी कविता को मैला होने से बचाने की मैं हर दम कोशिश करता रहता हूँ क्या करूॅ, मुझसे भी यह नवनीत और बॉसुरी छूटती नहीं। अब इन्हें मैं नीचे धर नहीं सकता, और रास्ता लम्बा ही नहीं कठिन भी बहुत है ।
''राहें कठिन दूर मंज़िल, एक मैं राही अकेला
इसलिये निज याद का तुम मुझे पाथेय दे दो ।
एक पत्र खुद को -
प्रिय मित्र,
बहुत समय से तुम्हें कोई पत्र नहीं लिखा, आज अचानक ही मुझे याद आया कि मैं उसे भूलता जा रहा हूॅ जिसे याद रखे बिना मेरा अस्तित्व ही अधूरा होता जा रहा है ।
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आजकल तुम दिखाई भी नहीं देते । एक दिन आइना बोला कि देखा तुमने ? मैंने चौंक कर देखा तो तुम दिखाई दिये, मगर कितने बदले हुए दिखाई दिये तुम ?
लोग कहा करते थे कि तुम ज़िन्दगी को जीने की कला जानते हो । तुम्हारा खुशी से दमकता चेहरा देखकर मुझे भी लगता था कि यह सच है, मगर आज ........ ।
आज आइने ने कहा कि देखो, जरा गौर से , और पहचानो तो उसे, तब मैंने चौंक कर देखा, तुम ही थे वह, परंतु लगा तुम वह कला भूल गये हो ।
मुझे याद है तुम्हारा एक दोस्त था - संपाति , जो अपने पंख सूरज से टकरा कर जला बैठा था । मुझे आश्चर्य होता था कि तुम्हारी संपाति से दोस्ती हुई कैसे ?
तुम कहते थे कि वन में कभी तुमने उस शबरी को देखा था जो राम की राह निहारती हुई, एक एक रास्ता बुहारती हुई सिर्फ राम की ही प्रतीक्षा किया करती थी ।
शबरी का एक जूठा बेर जो लक्ष्मण ने उठाकर फेंक दिया था, उसे कभी तुम उठा कर लाये थे । तुम दावा करते थे कि वह बेर उससे अधिक मीठा था जो राम ने खा लिया था । तुमने उस बेर को खाकर उसकी गूठली अपने ऑगन में बोई थी, और फिर वह अंकुरित भी तो हुई थी । बताओ ना, तुम्हारी वह बेर की झाड़ी अब भी फूली फली या नहीं ?
अब तुम्हारा वह दोस्त संपाति कहॉ है , उसके पंख जो तब जल गये थे , अब फिर से उगे या नहीं ? तुम इतने बदल क्यों गये हो ? वैसा बोलते नहीं, वैसा हॅसते नहीं, वैसा गाते भी नहीं । पहले तो कभी तुम आइने में समाते नहीं थे, अब भी आइना उतना ही छोटा है जितना पहले था, मगर तुम्हारे समूचे समा जाने के बाद भी आइने में इतनी खाली जगह कैसे बची रहती है ? मुझे कुछ समझ में नहीं आता ।
एक दिन आइना बोला कि जब आदमी आइना देखना छोड़ देता है तब वह मीठे बेर की ऋतु बदल जाती है । तब बेर की झाड़ी में डाला हुआ हाथ कॉटों की खरोंच से भर जाता है और जिस ऍगुली से खून बह रहा हो, उसे मुॅह में चूसता हुआ आदमी बोलता नहीं, सिसकारी भरता है , और ऍगुली का खून मॅुह से चूस कर वह यही देखता है कि कहीं और खून तो नहीं बह रहा ।
मेरे दोस्त, अब कभी उस वन से गुज़रो तो शबरी की उस झोपड़ी का द्वार खटखटाना । अब वहॉ शबरी तो नहीं रहती, पर उसकी सींची हुई बेर की झाड़ी वैसी ही फली फूली है ।
उस ऑगन में जाकर तुम उस झोपड़ी का द्वार खटखटाना । यदि तुम भूल गये हो तो याद दिला दूॅ कि उस दरवाज़े पर राम के ज़माने से आज तक कोई सॉकल हीं नहीं लगी, पर फिर भी भीतर जाने से पहले द्वार को खटखटाना तब भी ज़रूरी था और आज भी जरूरी है । उस कुटिया में एक दीया जल रहा है । त्रेतायुग से आज तक उस दीये में किसी ने घी नहीं डाला, फिर भी वह दीया वैसा ही जल रहा है । वहॉ जाओ । उस दीये की लौ अपनी ऑखों में भर कर जब लौटोगे तो रास्ते में तुम्हें बरसों से बिछुड़ा हुआ तुम्हारा दोस्त संपाति मिलेगा ।
वह संपाति तुम्हें पूछेगा कि जो सूरज आकाश में रहता है जिसने उसके पंख जला डाले, वह सूरज तुम अपनी ऑखों में कैसे रख लाये ? तब तुम संपाति से जो कहो वह मुझे भी कहना।
तुम्हारा - गोविंद
थोड़ा सा फर्क -
घमण्ड और आत्म विश्वास में क्या फर्क है ? जो हमारे अंदर होता है वह हमें आत्म विश्वास मालूम होता है और जो दूसरों में होता है वह घमण्ड दिखाई देता है ।
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कर्मवीर के अग्रलेख : राष्ट्रीय पत्रकारिता की गरिमा और नैतिक शक्ति के जीवंत दस्तावेज

कर्मवीर के अग्रलेख : राष्ट्रीय पत्रकारिता की गरिमा और नैतिक शक्ति के जीवंत दस्तावेज
गोविंद कुमार ''गुंजन''

भारतीय स्वाधीनता संग्राम के अत्यंत उथलपुथल वाले दौर में पत्रकारिता के पितृ पुरूष माधवरावजी सप्रे की प्रेरणा से कर्मवीर का प्रकाशन प्रारंभ हुआ था । जिसके लिये तब सर्व सम्मति से पं. माखनलाल चतुर्वेदीजी को उसका संपादक चुना गया था । कर्मवीर का संपादन चतुर्वेदी ने 17 जनवरी 1920 से लेकर 11 जुलाई 1959 तक किया । इसका पहला अंक जबलपुर से 17 जनवरी 1920 में निकला और नवम्बर 1922 तक वह जबलपुर से निकलता रहा। बाद में इसे खंडवा से प्रकाशित किया गया । 17 जनवरी 1920 के पहले ही अंक में चतुर्वेदीजी ने लिखा ''हमारी ऑखों में भारतीय जीवन गुलामी की जंजीरों से जकड़ा दीखता है । हृदय की पवित्रता पूर्वक हक प्रयत्न करेंगे कि वे जंजीरे फिसल जायें या टुकड़े टुकड़े होकर गिरने की कृपा करें । हम जिस तरह भीरूता नष्ट कर देने के लिये तैयार हेंगे उसी तरह अत्याचारों को भी । किन्तु भीरू और अत्याचारी दोनों ही हमारे होंगे और उनको दुनिया से हटा देने के लिए नहीं, उनकी प्रवृत्तियों को हटा देने के लिये हम उनसे लड़ते रहेंगे । हम स्वतंत्रता के हामी है । मुक्ति के उपासक हैं। राजनीति में या समाज में साहित्य में या धर्म में जहॉ भी स्वतंत्रता का पथ रोका जाएगा, ठोकर मारने वाले का पहला प्रहार और घातक शस्त्र पहला वार आदर से लेकर मुक्त होने के लिये प्रस्तुत रहेंगे ।''
इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि चतुर्वेदीजी किस संदेश और उद्देश्य की खातिर कर्मवीर निकालना चाह रहे थे। उन्होंने इसके प्रथम अंक में राष्ट्र हित के लिए जनता का आव्हान करते हुए लिखा था -''महान काम सामने है किन्तु करने वालों का टोटा है। प्रत्येक हृदय की ओर आशा भरी ऑखें भटकती हैं ..... यदि आप वृध्द हैं तो उपदेश लेकर यदि आप युवक हैं तो बल लेकर आएॅ । हृदय रखते हुए कानों के अंदर इस पुकार को प्रवेश होने दीजिये । इसलिए दौड़िये कि इस नाव में आपका सबकुछ रखा है और यदि आवश्यक है तो इसे डूबने न दीजये । हृदय की आकांक्षा है कि उन मूर्तियों के दर्शन हो जिनके हृदयों पर सूर्य भगवान की सुनहली किरण से लिखा हो - ''मातृभूमि और मनुष्यता पर बलि होने के लिये तैयार ।''
कर्मवीर के इस प्रथम अग्रलेख में ही जिस साहस के साथ स्वतंत्रता की कामना और मातृभूमि और मनुष्यता पर बलि होने की भावना को अभिव्यक्ति मिली थी , उस साहस की कीमत को आज समझना इतना आसान नहीं है । वह गुलामी का ऐसा दौर है जब अंगरेजी सरकार के खिलाफ इस तरह लिखना सरल बात नहीं थी । वंदे मातरम की बोली पर ही जहाँ कोड़े बरसते हों, वहाँ चतुर्वेदी के साहस का मोल समझने जैसा है। अंग्रेज सरकार ने कितने ही प्रेस जप्त किये, कितने ही साहित्यकारों को अपने लेखन के लिए सफाई देनी पड़ती थी । जुर्माना और जेल की सजाएॅ तो आम थी । उपलब्ध ऑकड़ों के अनुसार सन 1918 में लगभग 500 पुस्तकें सरकार ने जप्त की थी । 1917 तक 22 में से 18 पुराने समाचार पत्र और 80 में से प्राय: 40 छापखाने जमानत के कारण बंद हो चुके थे । 350 छापाखानों और 300 समाचार पत्रों से छ: लाख की जमानतें मॉगी गयी थी । लगभग 200 छापखाने और 130 समाचार पत्र तो जमानत मॉगी जाने के कारण प्रारंभ ही नहीं हो पाए थे ।(माखनलाल चतुर्वेदी ग्रंथावली, 9/78)। ऐसी विषम परिस्थितियों में कर्मवीर का प्रकाशन प्रारंभ होना एक साहसिक और क्रांतिकारी कदम था ।




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कर्मवीर प्रारंभ होने के पहले जब चतुर्वेदीजी कर्मवीर के घोषणा पत्र की व्याख्या करने जबलपुर गये, उस समय की घटना का ब्यौरा स्वयं चतुर्वेदीजी ने धर्मयुग के 30 मार्च 1969 के अंक में लिखी है, वह घटना उनके अद्भुत और अपूर्व साहस का परिचय देती है। 1920 में जब चतुर्वेदीजी जबलपुर पहुॅचे तब वहाँ सप्रेजी, रायबहादुर, पं. विष्णुदत्त शुक्ल सहित अनेक लोग थे। जिला मजिस्ट्रेट मिस्टर मिथाइस आय.सी.एस. के पास जाते समय रायबहादुर शुक्ल ने एक पत्र चतुर्वेदीजी को दिया, जिसमें लिखा था कि मैं बहुत गरीब आदमी हूँ, और उदरपूर्ति के लिए कोई रोजगार करने के उद्देश्य से कर्मवीर नामक साप्ताहिक पत्र निकालना चाहता हूँ । रायबहादुर शुक्ल समझ रहे थे कि मजिस्ट्रेट के सामने चतुर्वेदीजी की घिग्घी बॅध जाएगी और कुछ बोल नहीं पाएॅगें किन्तु उनकी आशा के विपरीत चतुर्वेदीजी ने ऐसा कोई आवेदन नहीं दिया। मिस्टर मिथाइस ने पूछा - ''एक अंग्रेजी वीकली के होते हुए आप हिन्दी साप्ताहिक क्यों निकालना चाह रहे हैं ? तब चतुर्वेदीजी ने दबंग स्वर में कहा -''आपका अंग्रेजी पत्र तो दब्बू हैं। मैं वैसा पत्र नहीं निकालना चाहता । मैं ऐसा पत्र निकालना चाहूँगा कि बिट्रिश शासन चलते चलते रूक जाए । मिस्टर मिथाइस उनके साहस से बहुत प्रभावित हुए और बोले - ''मैं एैसे पत्र को देखना चाहता हूँ । मैं आइरिश हूँ और आइरिश जन यह देखना चाहते हैं कि आप शासन बिगाड़े और मैं शासन को ठीक से चलाऊॅ । मजिस्ट्रेट ने बिना जमानत राशि लिये ही कर्मवीर निकालने की अनुमति देते हुए कहा - ''मिस्टर चतुर्वेदी आप भरपूर कोशिश कीजिए कि आपका पत्र सफल हो । मैं अपने शासन को ठीक रखुंगा। ब्रिटिश शासन कोई छुई मुई का पौधा नहीं । वह फूॅक से नई उड़ाया जा सकता । '
इस संवाद से हमें चतुर्वेदीजी के दृढ़ निश्चय और साहसी चरित्र का तो पता चलता ही है, साथ ही कर्मवीर पत्र के उद्देश और उसकी नैतिक अवधारणा का भी अभिज्ञान होता है। जिस पत्र के आधार में नैतिक साहस और बलिदान का जज्बात नहीं हो, वह राष्ट्र सेवा और अपनी स्वाधीनता की रक्षा के लिए दृढ़ प्रतिज्ञा हो ही नहीं सकता । चतुर्वेदीजी का तेजस्वी व्यक्तित्व, उनका अपार नैतिक बल, साहसी हृदय और क्रांतिकारी मस्तिष्क इन सबने कर्मवीर को हमारे समय का महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज बना दिया । आगे चल कर कर्मवीर के संपादकियों ने प्रखरता और निर्भीकता के साथ स्वतंत्रता संघर्ष को धधकते हुए इतिहास को बड़ी प्रामाणिकता के साथ उजागर किया । श्रीकांत जोशी ने रचनावली खण्ड 9 की भूमिका में लिखा है -''आज भी कर्मवीर के संपादकियों को पढ़ना अपनी स्वतंत्रता और अस्मिता से पहचान करना है और महसूस करना है कि कहीं हम ऐसा तो नहीं कर रहे हेैं कि पहचान के निशान धुधले होते चले जा रहे हों ।''
कर्मवीर की शक्ति का उदाहरण देखना हो तो हमें उसके द्वारा 17 जुलाई 20 से प्रारंभ किया गया एक वैचारिक आंदोलन का उदाहरण ही पर्याप्त होगा । मध्य प्रांत के सागर जिले में रतौना नामक स्थान पर प्रतिदिन ढाई हजार पशुओं का कत्ल करने वाला एक कसाईखाना अंग्रेज सरकार द्वारा स्थापित करने का निर्णय लिया गया था । 17 जुलाई 1920 के कर्मवीर के अग्रलेख द्वारा इसका विरोध प्रारंभ किया गया, जो अंग्रेजी शासन के विरूध्द एक प्रबल वैचारिक आंदोलन बन कर उभरा और देखते ही देखते चतुर्वेदीजी रतौना का एक राष्ट्रीय मुद्दा बन दिया। 17 जुलाई 20 से प्रारंभ हुआ यह वैचारिक आंदोलन 18 सिंतबर 1920 अर्थात केवल तीन माह में ही ऐसा मुद्दा बन गया कि रतौना का सरकारी कसाई खाना बंद करने का निर्णय सरकार को लेना पड़ा । पत्रकारिता की इस महान शक्ति को प्रणाम किया जाना चाहिए, जिसमें भारत में अंग्रेजों को अपनी पहली राजनीतिक और नैतिक पराजय का स्वाद चखने पर मजबूर कर दिया था ।


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कर्मवीर के संपादकीय अग्रलेखों की विशेषता सिर्फ यह नहीं है कि वो तात्कालीन स्वाधीनता आंदोलन की राजनीतिक शक्ति बन कर उभरे, बल्कि यह भी है कि उनमे मजदूरों, किसानों, और दलित दुखी जनता की वाणी भी मुखरित हुई है। यह वाणी केवल राजनीतिक स्वाधीनता की पुकार भर नहीं संपूर्ण भारतीय अस्मिता की मुक्ति की आकांक्षा भी है। 17 जनवरी 1920 के पहले ही संपादकीय में चतुर्वेदीजी ने उद्धोषणा की थी कि ''हम स्वतंत्रता के हामी हैं। मुक्ति के उपासक हैं । जाहिर है कि स्वाधीनता, स्वतंत्रता और मुक्ति इन सबके कुछ गहरे अर्थ माखनलालजी की चेतना में प्रज्ज्वलित थे । उनमें हिन्दू, मुस्लिम एकता, भाषा और प्रांतों के प्रश्न, विश्व राजनीतिक परिदृश्य, गॉव और गॉधी, कारखाने और चर्खा, सबकुछ है । इनमेें मूक पशुओं तक की व्यथा को भी आवाज दी गई है और उस व्यवस्था को ललकारा भी गया है जो मानवीय गरिमा का अपहरण करके, मनुष्य को पशु तुल्य जीवन जीने पर मजबूर करती है ।
22 मई 1920 के कर्मवीर का अग्रलेख देखें तो उसके माखनलालजी साम्यवाद के उदय की कुछ बड़ी मौलिक स्थापनाएॅ करते हुए दिखाई देते हैं । वह लिखते हें - ''जब तक मनुष्य समाज की कोई श्रेणी अपने सुख के साथ साथ अन्य श्रेणियों के सुख का विचार रखती है, तब तक मानव समाज का संसार यंत्र किसी तरह की अड़चन के उपस्थित हुए बिना चलता रहता है। परंतु जब एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के सुख की पर्वाह नहीं करता, जब तक एक श्रेणी दूसरी श्रेणी के दुखदर्द को नहीं देखती, तब तक ''अस्तित्व का झगड़ा'' चलता है। इसी झगड़े में से साम्यवाद का उदय हुआ है।'' इन पंक्तियों में हमें माखनलालजी के वीर वैष्णव हृदय से निकली जो साम्यवाद की शुध्द भारतीय अवधारण्ा है , उसका अंदाजा लग सकता है। माखनलालजी आगे लिखते हैं - ''इसी झगड़े से साम्यवाद का उदय हुआ है और वह संसार की सांपत्तिक, राजनैतिक , धार्मिक अथवा बौध्दिक महत्ता के ठेकेदारों को कहता है कि यदि तुम अपनी हठ से न हटोंगे तो संसार तुम्हें हटने को विवश कर देगा ।'' यह उल्लेखनीय है कि यह अग्रलेख जिस संदर्भ में लिखा गया था वह था, उस समय नार्थ वेस्ट रेल्वे के कर्मचारियों और अहमदाबाद के मिल वालो, मद्रास के तेल कारखानों में काम करने वालो और ब्यावर (राजपूताना) के मिल कर्मचारियों द्वारा अपना काम बंद कर दिया जाना था । चतुर्वेदीजी ने लिखा - ''मजदूर चाहते हैं, भरपेट भोजन मिले, पूँजीवाले अपने ऐशो आराम में कमी करना पसंद नहीं करते । कटुता दिन दिन बढ़ रहीं है ।' .... (ग्रंथावली-138/9)
14 जनवरी 1920 के कर्मवीर की संपादकीय टिप्पणी देखने पर पता चलता है कि चतुर्वेदी का मजदूरों और निम्न आयवर्गीय जनता की समस्याओं पर कितना ध्यान था। जबलपुर के गन केरेज फेक्ट्री में मजदूरों की वेतन वृध्दि का मुद्दा राष्ट्रीय स्तर पर उठाकर उन्होंने मजदूर की मजदूरी की समस्या और उसके साथ न्याय किये जाने की बात को कितनी गरिमा प्रदान की थी। सरकार को चेतावनी देते हुए आपने लिखा था - ''नगर के नेता इन बेकार आदमियों को शांत रखने और उनके दुख दूर करने का प्रयत्न करें, और अधिकारी वर्ग तथा कारखाने वाले मजदूरों की शिकायतों को उचित ढंग से सुने और उन्हें बिना विलम्बर दूर करें । उनका यह ढंग उन कारखाने वालों के ढंग से भी बुरा कहा जाएगा जो केवल लाभ के लिए काम करते हैं और अपने मजदूरों के कष्टों की अधिक परवाह करना उचित नहीं समझते ।'' (58/9)
माखनलालजी के लिखे हुए अग्रलेखों में जो व्यापक विकासशील और सचेतन दृष्टि दिखाई देती है उसे आज भी पढ़कर हमें उनके भविष्यद्रष्टा चिंतक का लोहा मानने पर बाध्य होना पड़ता है । अंग्रेजी सरकार रायल कमीशन की अनुशंसाओं पर भारतीयों को कृषि पर



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अधिक ध्यान देने की सलाह के पीछे अंग्रेजी सरकार की असली नियत भारतीय उद्योग की रीढ़ तोड़ देना थी । अंग्रेजों के इस छलावे का सशक्त विरोध करते हुए 24 फरवरी 1926 के कर्मवीर में आपने लिखा - ''रायल कमीशन चाहता है कि भारतवासी और भी खेती पर ही जीने के लिए विवश हो । यह भारत के भूखे पेटों, सूखी हड्डियों और गरीब किसानों को चुनौती है , क्या हम इस चुनौति को चुपचाप बर्दाश्त कर लेंगे? हमें एक स्वर में गर्जना करना चाहिए । हमें खेती का ब्रम्हास्त्र मत सिखाओ, हमें व्यापार की कुंजी चाहिए ।'' भारत को अपना बाजार बनाने वाली विदेशी ताकतों को ललकारते हुए आपने आज से 60 साल पहले लार्ड रीडिंग के वक्तव्य का विरोध करते हुए आपने कहा था कि हम प्राणों के रहते अपने बचे खुचे कुछ बाजार तुम्हें हरगिज न देंगे । चतुर्वेदीजी के भविष्य द्रष्टा विमर्श की हमारे ही द्वारा उपेक्षा का परिणाम आज हमें भारतीय उद्योगों की टूटती कमर के रूप में मिल रहा है। आज स्वाधीनता को प्राप्त करके भी हमारा देश विदेशी व्यापारियों के लिए एक मुक्त बाजार बनाया जा रहा है, जबकि हमारे पितृ पुरूष माखनलालजी हमें अंग्रेजी शासनकाल में ही इस खतरे की ओर आगाह कर चुके थे ।
स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात भी माखनलालजी के संपादकियों में हमें जो राष्ट्रीय चिंतना के स्वर सुनाई देते हैं वह उनकी जागरूक आत्मा के ही स्वर है । 15 अगस्त 50 के कर्मवीर में प्रजांतत्र की आत्मा का विश्लेषण करते हुए आपने लिखा था - ''विश्व आज दो सिध्दांतों का संघर्ष स्थल बना हुआ है । जिस अग्रगामी सिध्दांत पर कुछ लोगों को नाज है, वह प्राचीन राजतंत्र का एक विकृत रूप है , जिसे प्रचारकों, प्रपंचों और साधनों के बल पर प्रजातंत्र की प्रतिभा मानने को लोगों को विवश किया जा रहा है।''
चतुर्वेदीजी के इन शब्दों को हम आज के परिप्रेक्ष्य में देखेें तो हमें प्रजातंत्र में जन प्रतिनिधियों, विधायकों, सांसदों के वैभवशाली हो जाने और जनता के श्रम का शोषण करते, इनके राजसी वैभव का उपभोग करने वाले चरित्रों का खुलासा होने लगता है। आज सत्ता के छोटे से छोटे प्रतिनिधि भी जिस वैभव को प्राप्त कर रहे हैं और जो विलासी व वैभवशाली जीवन जी रहे हैं, वह उनके किसी छोटे मोटे राजा हो जाने जैसा ही सच हैं । ऐसे में वह गॉधीजी के आदर्श को याद करते हुए कहते हेैं कि - ''महात्मा गॉधी द्वारा प्रवर्तित प्रजा सत्ता का प्रतिनिधि लोक सेवक होता है, जिसका सब कुछ जन सेवा के लिए समर्पित हो चुका होता है। उसका पथ त्याग का पथ है, अधिकार लोलुपता का नहीं । यही स्थल है जहाँ देश भक्ति और जीवन की सुविधा साथ साथ चल सकते हैं ।'' ये क्रांतिकारी पंक्तियॉ हमारे देश की स्वाधीनता का वैचारिक अनुष्ठाान चलाने वाले पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने 15 अगस्त 1950 के कर्मवीर में लिखी थी । स्थितियॉ और परिस्थितियॉ आज भी बहुत कुछ नहीं बदली हैं । हमें अपने सत्ता के प्रतिनिधियों के चरित्र और चेहरे किस तरह बदलना जरूरी है इसे माखनलालजी के इस गहरे विमर्श से आज भी समझना बहुत प्रासंगिक और हितकारी सिध्द हो सकता है।
हमें यह याद रखना जरूरी है कि कर्मवीर में माखनलालजी ने जीवंत भारत की हर धड़कन को जिंदा रखा था । चाहे पर्व हो, त्यौहार हो, साहित्य हो, कला हो, कलाकार हो, संस्कृतिधर्मी हो, सबकी हलचलों और सबके गहरे मर्मो की उद्धाटना कर्मवीर के अग्रलेखों में मिलती है ।
7 फरवरी 1920 के कर्मवीर में माखनलालजी ने एक लंबा अग्रलेख लिखा था, जिसका शीर्षक था - ''प्रतिनिधि कौन हो ?'' यह अग्रलेख हर चुनाव में जनता के बीच आज भी छपकर बॉटने योग्य है । इसमें सच्चे भारतीय प्रजातंत्र के लिए पंचायतों के लिए कौसिलों के लिए चुने जाने वाले प्रतिनिधियों की जैसी न्यूनतम योग्यताएॅ माखनलालजी ने आवश्यक बताई है, वह इस
देश के लिए सदैव एक सर्वकालिक प्रासंगिकता का महत्व रखती है। इसकी कुछ पंक्तियॉ


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द्रष्टव्य है - ' जिन्हें इस बात का पता नहीं है कि हमारे हित चिंतक कौन है और हित शत्रु कौन है, वे नहीं जानते कि दलों की ओट में ऐसे भी जीव छुपे हुए हैं जिन्हें केवल अपने आपको आगे बढ़ा ले जाना है और केवल इस समय तक गरीब से गरीब भी अपना रिश्ता कायम रखता है, जब तक उसका वोट न मिल जाए । '' अशिक्षित और भोले मतदाताओं को चालाक राजनीतिज्ञों द्वारा उनके वोट पाने के लिए ठगने का भंडा फोड़ करते हुए, चतुर्वेदी ने जन प्रतिनिधियों के लिए ये कसौटी रखी थी - ''जो सरकारी नौकरों की मुस्कुराहटों पर कुर्बान होने के और उनकी त्यौरी चढ़ते जाने पर गठिया ग्रस्त हो जाने के लिए उतारू न हो जाए । जो कड़े से कड़े विरोध का सामना कर सके और जनता का विश्वास उठ जाने पर या जनता के बहुमत के अधिकार द्वारा निरंकुशता पूर्वक रौंदे जाने पर उसे प्रपंच करने वाली पंचायत को नमस्कार कर सके, वहीं हमारा पंच होने के लिए आगे बढ़े ।'' जो किसान रहा हो, या जिसने किसानी का कुछ अनुभव किया हो, या जो देहातों में रह चुका हो, या जो वर्ष का कुछ भाग देहात में और देश की सेवा के लिए संगठित मंडलों में व्यतीत करता हो, वह हमारा प्रतिनिधि चुना जाए। जो बढ़ई, लुहार, जुलाहे और मजदूरों की कठिनाईयों को समझता हो, उनके लिए कौसिलों में पहुॅचकर काम करने का अपने में बल अनुभव करता हो, और एक दिन उन प्रतिनिधियों को अपना साथी तथा मिनिस्टर बनाने के लिए उद्योग करना स्वीकार करता हो, वह हमारा पंच बनने के लिए आगे आवे । चतुर्वेदीजी लिखते हेैं कि - जो समझता और स्वीकार करता हो कि स्त्रियों का कौसिंल में पहुॅचना देश के गौरव का चिन्ह है और जो इस मार्ग की पशुता में यूरोप का अंधानुकरण करके देश को हानि न पहुॅचाना चाहता हो, वह हमारा पंच बने।'' (ग्रंथावली-48/9)
यह लेख बहुत लंबा है परंतु इसकी एक एक पंक्ति हमारे लिए राजनीतिक आचरण की एक आदर्श आचार संहिता है।
कर्मवीर के हर प्रकार की समस्याओं पर बेबाकी से विचार किया गया था । 12 मार्च 1921 के कर्मवीर में शासन के बजट पर आपकी विस्तृत टिप्पणी - ''बजट या दीवाला ?'' शीर्षक से छपी थी । इसमें विविध वस्तुओं पर बढ़ाए गए टेक्स के संबंध में चतुर्वेदीजी की टिप्पणीयों के कुछ अंश प्रस्तुत है - ''अन्य वस्तुओं में शराब, तम्बाकू और मोटर वगैरहा के टेक्स के संबंध में हमें शिकायत नहीं है । क्योंकि एक तो इनका न आना ही अच्छा है, दूसरे ये अधिकतर धनवानों के इस्तेमाल की चीजे हैं, जो कि टेक्स दे सकते हैं। गरीबों की नहीं । परंतु अन्य सब टेक्सों से बेचारी गरीब रैयत ही दबेगी । कपड़े का टेक्स बढ़ाने से कपड़ा तो महॅगा होगा ही, उसके अलावा दियासलाई, कोयला, कोक, ईधंन , घास और अनाज के लिए रेल का किराया बढ़ेगा । इस प्रकार जीवन की प्राय: सभी आवश्यक वस्तुओं पर टेक्स लगाकर माई बाप सरकार ने गरीबों का पेट काटा है। यह सब किसलिए ? इसलिए की सरकार के डायर बड़ी बडी तनखाहें पावे और उनकी तोपों के लिए गोलों का अटूट भंडार भरे ।
एक बात ध्यान देने योग्य है कि जनरल डायर को माखनलालजी हर प्रकार के अत्याचारों का प्रतीक बनाकर भी इस्तेमाल किया है। जलियावाला बाग के हत्याकांड को लेकर उनके लिखे गये लम्बे लम्बे संपादकीयों में जो ज्वालाभरी है , वह आज भी अपने पाठकों को थर्रा देने का सामर्थ्य रखती है। कर्मवीर के अग्रलेखों को पढ़कर हमारी ऑखें खुल जाती है। । यह हमारे स्वाधीनता संगा्रम का जीवन्त दस्तावेज बनकर राष्ट्रीय पत्रकारिता की गरिमा, प्रतिष्ठा और नैतिक बल का एक ऐसा उदाहरण है, जिनकी मिसाल मिलना बहुत मुश्किल है।
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