मन के प्रतिबिंब और सोच के उभयदंश
गोविंद कुमार 'गुंजन'
आदमी की जाति -
मेरी दृष्टि में जाति का अर्थ स्वभाव से ज्यादा और कुछ नहीं है । जीवन में हर चीज लाभ हानि के तराजू पर तौलने की वृत्ति , आदमी के स्वभाव में हो तो चाहे वह किसी भी जाति में जन्मा हो उसका स्वभाव वैश्य का स्वभाव है । ज्ञान की पिपासा ही ब्राम्हण स्वभाव है, चाहे वह क्षत्रिय होकर जन्मा हो । विश्वामित्र क्षत्रिय कुल में जन्मे ब्राम्हण थे । शंबूक शुद्र कुल में जन्मा ब्राम्हण था । दुर्भाग्य से आज की मनुष्यता यह भूल चूकी है कि जाति का अर्थ मूलत: स्वभावगत होता है ।
मेरा समाज -
व्यक्ति का समाज बह ुआयामी होता है । अक्सर व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है, उसको अपना समाज समझता है, परंतु यह एक अर्धसत्य है । एक समाज वह है जहां उसकी जड़े हैं, और दूसरा वह आकाश है, जहां से वह अपने हिस्से की धूप ,हवा,और पानी जुटाता है। जहां वह अपने रोजगार के कारण जुड़ जाता है । वह समाज उसके जीवन पोषण के लिये एक आकाश निर्मित कर देता है, और जहां वह अपने ''स्व-भाव'' से जुड़ जाये वहां उसकी जड़े पनपती रहती है । कष्टप्रद बात यह है कि रोजगार के निमित्त वह धीरे धीरे अपने उस आकाशी समाज में इतना फैल जाता है कि अपनी जड़ों के उखड़ जाने का भी उसे एहसास तक नहीं होता । एक कमरे में किसी बोटल में लगे ''मनी प्लांट '' की तरह वह बिना जमीन से जुड़े जीना सीख जाता है । एक दीवार के सहारे को , एक छत भर छाया को , वह अपना संसार समझने लगता है । इस तरह एक कृत्रिम दुनिया में वह जीता चला जाता है । यदि समाजशास्त्री सही है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तो शायद मेरा यह सोचना भी ठीक ही होगा कि आदमी एक नकली समाज में जीना सीख गया है । वह अपने असली समाज से बेदखल है, और उसे इस बात का एहसास भी नहीं बचा कि कभी उसकी भी कुछ जड़े थी । उसका अपने ''मूल'' से विच्छेद होना एक भीषण दुर्घटना है, परंतु अपनी इस दुर्घटना को भी वह इस तरह अनदेखा करते हुए आगे बढ़ जाता है , जैसे सड़क पर पड़े किसी दूसरे दुर्घटना ग्रस्त व्यक्ति को अनदेखा कर वह कई बार अपने आप को झंझट से बचा ले जाने के ख्याल से चुपचाप आगे चल दिया था । कई बार अपने इस सामाजिक नकलीपन को महसूस करने की पीड़ा ने शायद मुझसे यह पंक्तियां लिखवायी थी-
''नकली दवा जहर है , हलाहल है नकली प्यार !
यहां तो सभी चीजें नकली है,यहां से चला ही चल यार ॥
अपने अपने हिस्से का समाज -
हर व्यक्ति के हिस्सें में अनिवार्य रूप से समाज का एक टुकड़ा आता ही है । जैसे मनुष्य किसी कुल किसी जाति या अपनी पसंद के मां बाप के यहां जन्म लेने को स्वतंत्र नहीं है, उसी तरह वह अपने हिस्सें का समाज भी अपनी पसंद के अनुरूप चुन सकने के लिए स्वतंत्र नहीं है । मेरे हिस्से में मेरे दफ्तर के लोग , मेरे मुहल्ले को लोग, मेरी जाति,कुल और रिश्ते के लोग सभी मेरी पसंद से नहीं आ सकते ।
वास्तव में समाज का एक बड़ा रूप वह भी है जिसमें आदमी का रूप किसी धर्म ,किसी जाति या मजहब को आईने में देखा ही नहीं जा सकता । उदाहरण के लिये बाजार में अपनी दुकानें लगा कर बैठा हुआ व्यापारी एक समाज है । इस समाज में सारे व्यापारी एक है । चाहे वह हिंदु व्यापारी हो, या मुसलमान व्यापारी। वह सिंधी व्यापारी हो या पारसी हो या बोहरा
निरंतर .....2
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हो, या जैन हो, वह सब एक ही जाति का समाज है । बस दुकानों के नाम अलग अलग है । मगर भीतर से कोई बड़ा फर्क नहीं । धीरे धीरे सभी समाजों का इसी तरह बाजारीकरण हो जाता है । यह बाजारीकरण मनुष्य का वस्तुकरण्ा कर देता है । धीरे धीरे मनुष्य का भीतरी व्यक्ति गुम हो जाता है , और वह एक दूसरे के उपभोग अथवा शोषण की वस्तु में तब्दील होता चला जाता है । यह हमारे सामाजिक जीवन का अभिशाप है, और सामाजिक प्राणी होने के नाते अपने अपने हिस्सें में आये हुए समाज के एक अनिवार्य हिस्से का अभिशाप भोगने के लिये हर व्यक्ति बाध्य हों जाता है ।
कम कहे गये सच -
हमारे जीवन के सामाजिक आर्थिक, राजनैतिक , धार्मिक-सांस्कृतिक और साहित्यिक सभी मुद्दों से जुड़े ऐसे बहुत से कम कहे गये सच है, जिन्हें कहने, सुनने अथवा मान लेने पर आदमी अपने आप को नंगा महसूस करता है । शायद इसीलिए ये सच कम कहे गये है ।
लकड़ी के कृत्रिम पैर (बैशाखियां ) लगा कर चलती हुई हमारी ये अपाहिज वृत्तियां अपना मूलाधार खोने का शायद की कोई संताप करती हो । संभव है किसी दिन आदमी महसूस करे कि उसका काम अपनी जड़ों के बगैर नहीं चल सकता । वस्तुत: व्यक्ति का स्वभाव नितांत ही व्यक्तिगत स्थिति है, और वही उसका वास्तविक परिचायक भी है । यदि कवि होकर भी कोई प्यार को सिर्फ मन का एक भाव ही समझता रहे, तो वह कवि नहीं सिर्फ एक व्यापारी ही है । फिर उसके भाव (मूल्य) चाहे कितने ही ऊंचे क्यों ना हो ! उसकी कविताओं के संग्रह अकादमियों से पुरस्कृत ही क्यों ना हो रहे हो, वह कवि नहीें है ,इतना निश्चित है ।
अकादमियों से पुरस्कृत हो जाना बड़ी बात नहीं है । बड़ी बात है आदमियों से पुरस्कृत होना ।
कविता की तलाश -
कभी कभी आदमी के जीवन में ऐसा बहुत कुछ आता है जो कविता जैसा होता है । यह ''कविता जैसा कुछ'' किसी कवि के ही जीवन में ही यह जरूरी नहीं होता । यह किसी के जीवन में भी हो सकता है ।
अक्सर इस ''कविता जैसे कुछ'' को कुछ लोग शब्दों में बांध लेने में कुशल हो जाते हैं। वह उसे शब्दों से ही उठा पाते है, पर मुझे इससे संतोष नहीं होता । मुझे उस ''कविता जैसी कुछ चीज'' में कोई रस नहीं है । मेरा रस तो सिर्फ कविता में है । ''कविता जैसी किसी दूसरी चीज में नहीं । मेरी कठिनाई बहुत बड़ी है । मैं कविता को शब्दों से नहीं,सीधे सीधे हाथों से उठा लेना चाहता हूं । मुझे रास्ते चलते भी कविता राह में पड़ी हुई मिल जाती है, परंतु जब मैं उसे उठाने के लिये झपटता हूं तो जैसे कोई किसी अदृश्य जगत से विपरीत परिस्थितियों की एक बैंत सी मेंरे हाथों पर मार देता है । यह बेंत इतनी मजबूत है कि मेरे हाथों को सुजा देती है,जख्मी कर देती है,मुझे तिलमिला देती है ।
इस सूजे हुए और दुखते हुए हाथों से मुझे अपने जीवन की ठेला गाड़ी भी खींचना है, और राह में पड़ी हुई कविता भी उठानी है ।
ग़में रोजगार -
गालिब ने कहा है : ''ग़में इश्क ना होता तो गमे रोज़गार होता ।'' मैं लगभग 21 वर्ष की आयु पूर्ण करते ही ग़मे रोज़गार को गले लगा चुका था । इसके पहले ग़मे इश्क तो काफी सर चढ़ चुका था। यह इश्क कविता के रूप में पूरी तरह नस नस में फैल चुका था । गमे रोजगार
निरंतर .....3
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और ग़मे इश्क में मेरी कविता की जो क्षति हुई वह मेरी परम निजी क्षति है इसकी पूर्ति इस जन्म में संभव नहीं है । रोजगार को और अपने काम को पूजा का दर्जा देना दर्शन और अध्यात्म की देन है । परंतु पूजा करने के लिये पुजारी को जिस मानसिक भाव भूमि की अनिवार्यता होती है, उसे खंडित करने वाले ऐसे बहुत से तत्व भी होते हैं जिनका प्रतिकूल प्रभाव नकारा नहीं जा सकता ।
सौभाग्य से मेरे रोज़गार ने मुझे अपना बोझ, खुद उठाने लायक तो बना दिया, परंतु परिस्थितियॉ मुझे सिर्फ बोझा उठाने वाला बनाकर ही छोड़ना चाहती है । किसी ने कहा है- -''इन दिनों अजीब है कवि का धंधा, है दोनों चीज़ें व्यस्त, कलम और कंधा । ''
ग़मे इश्क -
''प्र्रेम मद छाके पग परत कहॉ के कहॉ / थाके अंग नैननि सिथिलता सुहाई है / कहै रतनाकर यौं आवत चकात ऊधो / मानौ सुधियात कोऊ भावना भुलाई है / धारत धरा पै ना उदार अति आदर सौं/ सारत बहोलिनी जो ऑस अधिकाई है ।
एक कर राजै नवनीत जसुदा को दियौ / एक कर बंशी बर राधिका पठाई है''
(उध्दव शतक : रत्नाकर )
बृज से लौटते समय उध्दव को यशोदाजी ने एक दोना माखन कृष्ण तक पहुॅचाने के लिये दिया था और राधाजी ने कृष्ण की अमानत उनकी बॉसुरी भिजवाई । प्रेम मगन उध्दव प्रेम की मदिरा से मस्त डोलते हुए लौटे, किन्तु अति आदर के कारण, वह रास्ते भर न कहीं वह नवनीत नीचे धरते हैं ना बॉसुरी । दोनों हाथों में दोनों चीज़े संभाले, विश्राम के समय भी तनिक उन्हें नीचे ना रखना यह उध्दव की प्रेम यात्रा की कठिनाई थी । परंतु इस यात्रा में उध्दव सौभाग्यशाली हैं कि उन्हें सिर्फ कन्हैया के नवनीत और बॉसुरी को ही संभावना था । उन्हें और अन्य कुछ नहीं संभालना था । खुद को भी वे बस इसलिये संभाल रहे थे कि कहीं हाथों से वह नवनीत छलक ना जाये । और राधाजी के हाथों प्रेषित कन्हैया की अमानत सादर कन्हैया तक पहुॅचा सके ।
परंतु उध्दव जैसा सौभाग्य सभी को नहीं मिलता । अब नये युग के उध्दव को अपने ग़मे रोजगार से जूझने के लिये अपने दो हाथ भी कम पड़ते हैं । बेचारा वह नवनीत और बॉसुरी की अमानत को ठीक से कैसे संभाले । ठीक से वह बॉसुरी और नवनीत को संभाल नहीं पाने की विवशता से दुखी और उन्हें अक्सर नीचे रख देने को बाध्य करती हुई परिस्थितियों से जूझना, नये युग के उध्दव की बड़ी कठिनाईया हैं ।
ग़में इश्क (मेरा कविता का प्रेम) और ग़मे रोज़गार अर्थात रोज़मर्रा जीवन के वो सारे कटु सच जो रिश्ते नाते दोस्ती संबंध सभी दरका दे, अब इन दोनों के बीच कोई सुविधा जनक पुल की तलाश में भटकते भटकते मेरे पैर भी घिस घिस कर छोटे होते जा रहे हैं । हर बार इस कद के घटते जाने की अपमान जन्य पीड़ा से अपनी कविता को मैला होने से बचाने की मैं हर दम कोशिश करता रहता हूँ क्या करूॅ, मुझसे भी यह नवनीत और बॉसुरी छूटती नहीं। अब इन्हें मैं नीचे धर नहीं सकता, और रास्ता लम्बा ही नहीं कठिन भी बहुत है ।
''राहें कठिन दूर मंज़िल, एक मैं राही अकेला
इसलिये निज याद का तुम मुझे पाथेय दे दो ।
एक पत्र खुद को -
प्रिय मित्र,
बहुत समय से तुम्हें कोई पत्र नहीं लिखा, आज अचानक ही मुझे याद आया कि मैं उसे भूलता जा रहा हूॅ जिसे याद रखे बिना मेरा अस्तित्व ही अधूरा होता जा रहा है ।
-5-
आजकल तुम दिखाई भी नहीं देते । एक दिन आइना बोला कि देखा तुमने ? मैंने चौंक कर देखा तो तुम दिखाई दिये, मगर कितने बदले हुए दिखाई दिये तुम ?
लोग कहा करते थे कि तुम ज़िन्दगी को जीने की कला जानते हो । तुम्हारा खुशी से दमकता चेहरा देखकर मुझे भी लगता था कि यह सच है, मगर आज ........ ।
आज आइने ने कहा कि देखो, जरा गौर से , और पहचानो तो उसे, तब मैंने चौंक कर देखा, तुम ही थे वह, परंतु लगा तुम वह कला भूल गये हो ।
मुझे याद है तुम्हारा एक दोस्त था - संपाति , जो अपने पंख सूरज से टकरा कर जला बैठा था । मुझे आश्चर्य होता था कि तुम्हारी संपाति से दोस्ती हुई कैसे ?
तुम कहते थे कि वन में कभी तुमने उस शबरी को देखा था जो राम की राह निहारती हुई, एक एक रास्ता बुहारती हुई सिर्फ राम की ही प्रतीक्षा किया करती थी ।
शबरी का एक जूठा बेर जो लक्ष्मण ने उठाकर फेंक दिया था, उसे कभी तुम उठा कर लाये थे । तुम दावा करते थे कि वह बेर उससे अधिक मीठा था जो राम ने खा लिया था । तुमने उस बेर को खाकर उसकी गूठली अपने ऑगन में बोई थी, और फिर वह अंकुरित भी तो हुई थी । बताओ ना, तुम्हारी वह बेर की झाड़ी अब भी फूली फली या नहीं ?
अब तुम्हारा वह दोस्त संपाति कहॉ है , उसके पंख जो तब जल गये थे , अब फिर से उगे या नहीं ? तुम इतने बदल क्यों गये हो ? वैसा बोलते नहीं, वैसा हॅसते नहीं, वैसा गाते भी नहीं । पहले तो कभी तुम आइने में समाते नहीं थे, अब भी आइना उतना ही छोटा है जितना पहले था, मगर तुम्हारे समूचे समा जाने के बाद भी आइने में इतनी खाली जगह कैसे बची रहती है ? मुझे कुछ समझ में नहीं आता ।
एक दिन आइना बोला कि जब आदमी आइना देखना छोड़ देता है तब वह मीठे बेर की ऋतु बदल जाती है । तब बेर की झाड़ी में डाला हुआ हाथ कॉटों की खरोंच से भर जाता है और जिस ऍगुली से खून बह रहा हो, उसे मुॅह में चूसता हुआ आदमी बोलता नहीं, सिसकारी भरता है , और ऍगुली का खून मॅुह से चूस कर वह यही देखता है कि कहीं और खून तो नहीं बह रहा ।
मेरे दोस्त, अब कभी उस वन से गुज़रो तो शबरी की उस झोपड़ी का द्वार खटखटाना । अब वहॉ शबरी तो नहीं रहती, पर उसकी सींची हुई बेर की झाड़ी वैसी ही फली फूली है ।
उस ऑगन में जाकर तुम उस झोपड़ी का द्वार खटखटाना । यदि तुम भूल गये हो तो याद दिला दूॅ कि उस दरवाज़े पर राम के ज़माने से आज तक कोई सॉकल हीं नहीं लगी, पर फिर भी भीतर जाने से पहले द्वार को खटखटाना तब भी ज़रूरी था और आज भी जरूरी है । उस कुटिया में एक दीया जल रहा है । त्रेतायुग से आज तक उस दीये में किसी ने घी नहीं डाला, फिर भी वह दीया वैसा ही जल रहा है । वहॉ जाओ । उस दीये की लौ अपनी ऑखों में भर कर जब लौटोगे तो रास्ते में तुम्हें बरसों से बिछुड़ा हुआ तुम्हारा दोस्त संपाति मिलेगा ।
वह संपाति तुम्हें पूछेगा कि जो सूरज आकाश में रहता है जिसने उसके पंख जला डाले, वह सूरज तुम अपनी ऑखों में कैसे रख लाये ? तब तुम संपाति से जो कहो वह मुझे भी कहना।
तुम्हारा - गोविंद
थोड़ा सा फर्क -
घमण्ड और आत्म विश्वास में क्या फर्क है ? जो हमारे अंदर होता है वह हमें आत्म विश्वास मालूम होता है और जो दूसरों में होता है वह घमण्ड दिखाई देता है ।
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गोविंद कुमार 'गुंजन'
आदमी की जाति -
मेरी दृष्टि में जाति का अर्थ स्वभाव से ज्यादा और कुछ नहीं है । जीवन में हर चीज लाभ हानि के तराजू पर तौलने की वृत्ति , आदमी के स्वभाव में हो तो चाहे वह किसी भी जाति में जन्मा हो उसका स्वभाव वैश्य का स्वभाव है । ज्ञान की पिपासा ही ब्राम्हण स्वभाव है, चाहे वह क्षत्रिय होकर जन्मा हो । विश्वामित्र क्षत्रिय कुल में जन्मे ब्राम्हण थे । शंबूक शुद्र कुल में जन्मा ब्राम्हण था । दुर्भाग्य से आज की मनुष्यता यह भूल चूकी है कि जाति का अर्थ मूलत: स्वभावगत होता है ।
मेरा समाज -
व्यक्ति का समाज बह ुआयामी होता है । अक्सर व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है, उसको अपना समाज समझता है, परंतु यह एक अर्धसत्य है । एक समाज वह है जहां उसकी जड़े हैं, और दूसरा वह आकाश है, जहां से वह अपने हिस्से की धूप ,हवा,और पानी जुटाता है। जहां वह अपने रोजगार के कारण जुड़ जाता है । वह समाज उसके जीवन पोषण के लिये एक आकाश निर्मित कर देता है, और जहां वह अपने ''स्व-भाव'' से जुड़ जाये वहां उसकी जड़े पनपती रहती है । कष्टप्रद बात यह है कि रोजगार के निमित्त वह धीरे धीरे अपने उस आकाशी समाज में इतना फैल जाता है कि अपनी जड़ों के उखड़ जाने का भी उसे एहसास तक नहीं होता । एक कमरे में किसी बोटल में लगे ''मनी प्लांट '' की तरह वह बिना जमीन से जुड़े जीना सीख जाता है । एक दीवार के सहारे को , एक छत भर छाया को , वह अपना संसार समझने लगता है । इस तरह एक कृत्रिम दुनिया में वह जीता चला जाता है । यदि समाजशास्त्री सही है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तो शायद मेरा यह सोचना भी ठीक ही होगा कि आदमी एक नकली समाज में जीना सीख गया है । वह अपने असली समाज से बेदखल है, और उसे इस बात का एहसास भी नहीं बचा कि कभी उसकी भी कुछ जड़े थी । उसका अपने ''मूल'' से विच्छेद होना एक भीषण दुर्घटना है, परंतु अपनी इस दुर्घटना को भी वह इस तरह अनदेखा करते हुए आगे बढ़ जाता है , जैसे सड़क पर पड़े किसी दूसरे दुर्घटना ग्रस्त व्यक्ति को अनदेखा कर वह कई बार अपने आप को झंझट से बचा ले जाने के ख्याल से चुपचाप आगे चल दिया था । कई बार अपने इस सामाजिक नकलीपन को महसूस करने की पीड़ा ने शायद मुझसे यह पंक्तियां लिखवायी थी-
''नकली दवा जहर है , हलाहल है नकली प्यार !
यहां तो सभी चीजें नकली है,यहां से चला ही चल यार ॥
अपने अपने हिस्से का समाज -
हर व्यक्ति के हिस्सें में अनिवार्य रूप से समाज का एक टुकड़ा आता ही है । जैसे मनुष्य किसी कुल किसी जाति या अपनी पसंद के मां बाप के यहां जन्म लेने को स्वतंत्र नहीं है, उसी तरह वह अपने हिस्सें का समाज भी अपनी पसंद के अनुरूप चुन सकने के लिए स्वतंत्र नहीं है । मेरे हिस्से में मेरे दफ्तर के लोग , मेरे मुहल्ले को लोग, मेरी जाति,कुल और रिश्ते के लोग सभी मेरी पसंद से नहीं आ सकते ।
वास्तव में समाज का एक बड़ा रूप वह भी है जिसमें आदमी का रूप किसी धर्म ,किसी जाति या मजहब को आईने में देखा ही नहीं जा सकता । उदाहरण के लिये बाजार में अपनी दुकानें लगा कर बैठा हुआ व्यापारी एक समाज है । इस समाज में सारे व्यापारी एक है । चाहे वह हिंदु व्यापारी हो, या मुसलमान व्यापारी। वह सिंधी व्यापारी हो या पारसी हो या बोहरा
निरंतर .....2
-2-
हो, या जैन हो, वह सब एक ही जाति का समाज है । बस दुकानों के नाम अलग अलग है । मगर भीतर से कोई बड़ा फर्क नहीं । धीरे धीरे सभी समाजों का इसी तरह बाजारीकरण हो जाता है । यह बाजारीकरण मनुष्य का वस्तुकरण्ा कर देता है । धीरे धीरे मनुष्य का भीतरी व्यक्ति गुम हो जाता है , और वह एक दूसरे के उपभोग अथवा शोषण की वस्तु में तब्दील होता चला जाता है । यह हमारे सामाजिक जीवन का अभिशाप है, और सामाजिक प्राणी होने के नाते अपने अपने हिस्सें में आये हुए समाज के एक अनिवार्य हिस्से का अभिशाप भोगने के लिये हर व्यक्ति बाध्य हों जाता है ।
कम कहे गये सच -
हमारे जीवन के सामाजिक आर्थिक, राजनैतिक , धार्मिक-सांस्कृतिक और साहित्यिक सभी मुद्दों से जुड़े ऐसे बहुत से कम कहे गये सच है, जिन्हें कहने, सुनने अथवा मान लेने पर आदमी अपने आप को नंगा महसूस करता है । शायद इसीलिए ये सच कम कहे गये है ।
लकड़ी के कृत्रिम पैर (बैशाखियां ) लगा कर चलती हुई हमारी ये अपाहिज वृत्तियां अपना मूलाधार खोने का शायद की कोई संताप करती हो । संभव है किसी दिन आदमी महसूस करे कि उसका काम अपनी जड़ों के बगैर नहीं चल सकता । वस्तुत: व्यक्ति का स्वभाव नितांत ही व्यक्तिगत स्थिति है, और वही उसका वास्तविक परिचायक भी है । यदि कवि होकर भी कोई प्यार को सिर्फ मन का एक भाव ही समझता रहे, तो वह कवि नहीं सिर्फ एक व्यापारी ही है । फिर उसके भाव (मूल्य) चाहे कितने ही ऊंचे क्यों ना हो ! उसकी कविताओं के संग्रह अकादमियों से पुरस्कृत ही क्यों ना हो रहे हो, वह कवि नहीें है ,इतना निश्चित है ।
अकादमियों से पुरस्कृत हो जाना बड़ी बात नहीं है । बड़ी बात है आदमियों से पुरस्कृत होना ।
कविता की तलाश -
कभी कभी आदमी के जीवन में ऐसा बहुत कुछ आता है जो कविता जैसा होता है । यह ''कविता जैसा कुछ'' किसी कवि के ही जीवन में ही यह जरूरी नहीं होता । यह किसी के जीवन में भी हो सकता है ।
अक्सर इस ''कविता जैसे कुछ'' को कुछ लोग शब्दों में बांध लेने में कुशल हो जाते हैं। वह उसे शब्दों से ही उठा पाते है, पर मुझे इससे संतोष नहीं होता । मुझे उस ''कविता जैसी कुछ चीज'' में कोई रस नहीं है । मेरा रस तो सिर्फ कविता में है । ''कविता जैसी किसी दूसरी चीज में नहीं । मेरी कठिनाई बहुत बड़ी है । मैं कविता को शब्दों से नहीं,सीधे सीधे हाथों से उठा लेना चाहता हूं । मुझे रास्ते चलते भी कविता राह में पड़ी हुई मिल जाती है, परंतु जब मैं उसे उठाने के लिये झपटता हूं तो जैसे कोई किसी अदृश्य जगत से विपरीत परिस्थितियों की एक बैंत सी मेंरे हाथों पर मार देता है । यह बेंत इतनी मजबूत है कि मेरे हाथों को सुजा देती है,जख्मी कर देती है,मुझे तिलमिला देती है ।
इस सूजे हुए और दुखते हुए हाथों से मुझे अपने जीवन की ठेला गाड़ी भी खींचना है, और राह में पड़ी हुई कविता भी उठानी है ।
ग़में रोजगार -
गालिब ने कहा है : ''ग़में इश्क ना होता तो गमे रोज़गार होता ।'' मैं लगभग 21 वर्ष की आयु पूर्ण करते ही ग़मे रोज़गार को गले लगा चुका था । इसके पहले ग़मे इश्क तो काफी सर चढ़ चुका था। यह इश्क कविता के रूप में पूरी तरह नस नस में फैल चुका था । गमे रोजगार
निरंतर .....3
-3-
और ग़मे इश्क में मेरी कविता की जो क्षति हुई वह मेरी परम निजी क्षति है इसकी पूर्ति इस जन्म में संभव नहीं है । रोजगार को और अपने काम को पूजा का दर्जा देना दर्शन और अध्यात्म की देन है । परंतु पूजा करने के लिये पुजारी को जिस मानसिक भाव भूमि की अनिवार्यता होती है, उसे खंडित करने वाले ऐसे बहुत से तत्व भी होते हैं जिनका प्रतिकूल प्रभाव नकारा नहीं जा सकता ।
सौभाग्य से मेरे रोज़गार ने मुझे अपना बोझ, खुद उठाने लायक तो बना दिया, परंतु परिस्थितियॉ मुझे सिर्फ बोझा उठाने वाला बनाकर ही छोड़ना चाहती है । किसी ने कहा है- -''इन दिनों अजीब है कवि का धंधा, है दोनों चीज़ें व्यस्त, कलम और कंधा । ''
ग़मे इश्क -
''प्र्रेम मद छाके पग परत कहॉ के कहॉ / थाके अंग नैननि सिथिलता सुहाई है / कहै रतनाकर यौं आवत चकात ऊधो / मानौ सुधियात कोऊ भावना भुलाई है / धारत धरा पै ना उदार अति आदर सौं/ सारत बहोलिनी जो ऑस अधिकाई है ।
एक कर राजै नवनीत जसुदा को दियौ / एक कर बंशी बर राधिका पठाई है''
(उध्दव शतक : रत्नाकर )
बृज से लौटते समय उध्दव को यशोदाजी ने एक दोना माखन कृष्ण तक पहुॅचाने के लिये दिया था और राधाजी ने कृष्ण की अमानत उनकी बॉसुरी भिजवाई । प्रेम मगन उध्दव प्रेम की मदिरा से मस्त डोलते हुए लौटे, किन्तु अति आदर के कारण, वह रास्ते भर न कहीं वह नवनीत नीचे धरते हैं ना बॉसुरी । दोनों हाथों में दोनों चीज़े संभाले, विश्राम के समय भी तनिक उन्हें नीचे ना रखना यह उध्दव की प्रेम यात्रा की कठिनाई थी । परंतु इस यात्रा में उध्दव सौभाग्यशाली हैं कि उन्हें सिर्फ कन्हैया के नवनीत और बॉसुरी को ही संभावना था । उन्हें और अन्य कुछ नहीं संभालना था । खुद को भी वे बस इसलिये संभाल रहे थे कि कहीं हाथों से वह नवनीत छलक ना जाये । और राधाजी के हाथों प्रेषित कन्हैया की अमानत सादर कन्हैया तक पहुॅचा सके ।
परंतु उध्दव जैसा सौभाग्य सभी को नहीं मिलता । अब नये युग के उध्दव को अपने ग़मे रोजगार से जूझने के लिये अपने दो हाथ भी कम पड़ते हैं । बेचारा वह नवनीत और बॉसुरी की अमानत को ठीक से कैसे संभाले । ठीक से वह बॉसुरी और नवनीत को संभाल नहीं पाने की विवशता से दुखी और उन्हें अक्सर नीचे रख देने को बाध्य करती हुई परिस्थितियों से जूझना, नये युग के उध्दव की बड़ी कठिनाईया हैं ।
ग़में इश्क (मेरा कविता का प्रेम) और ग़मे रोज़गार अर्थात रोज़मर्रा जीवन के वो सारे कटु सच जो रिश्ते नाते दोस्ती संबंध सभी दरका दे, अब इन दोनों के बीच कोई सुविधा जनक पुल की तलाश में भटकते भटकते मेरे पैर भी घिस घिस कर छोटे होते जा रहे हैं । हर बार इस कद के घटते जाने की अपमान जन्य पीड़ा से अपनी कविता को मैला होने से बचाने की मैं हर दम कोशिश करता रहता हूँ क्या करूॅ, मुझसे भी यह नवनीत और बॉसुरी छूटती नहीं। अब इन्हें मैं नीचे धर नहीं सकता, और रास्ता लम्बा ही नहीं कठिन भी बहुत है ।
''राहें कठिन दूर मंज़िल, एक मैं राही अकेला
इसलिये निज याद का तुम मुझे पाथेय दे दो ।
एक पत्र खुद को -
प्रिय मित्र,
बहुत समय से तुम्हें कोई पत्र नहीं लिखा, आज अचानक ही मुझे याद आया कि मैं उसे भूलता जा रहा हूॅ जिसे याद रखे बिना मेरा अस्तित्व ही अधूरा होता जा रहा है ।
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आजकल तुम दिखाई भी नहीं देते । एक दिन आइना बोला कि देखा तुमने ? मैंने चौंक कर देखा तो तुम दिखाई दिये, मगर कितने बदले हुए दिखाई दिये तुम ?
लोग कहा करते थे कि तुम ज़िन्दगी को जीने की कला जानते हो । तुम्हारा खुशी से दमकता चेहरा देखकर मुझे भी लगता था कि यह सच है, मगर आज ........ ।
आज आइने ने कहा कि देखो, जरा गौर से , और पहचानो तो उसे, तब मैंने चौंक कर देखा, तुम ही थे वह, परंतु लगा तुम वह कला भूल गये हो ।
मुझे याद है तुम्हारा एक दोस्त था - संपाति , जो अपने पंख सूरज से टकरा कर जला बैठा था । मुझे आश्चर्य होता था कि तुम्हारी संपाति से दोस्ती हुई कैसे ?
तुम कहते थे कि वन में कभी तुमने उस शबरी को देखा था जो राम की राह निहारती हुई, एक एक रास्ता बुहारती हुई सिर्फ राम की ही प्रतीक्षा किया करती थी ।
शबरी का एक जूठा बेर जो लक्ष्मण ने उठाकर फेंक दिया था, उसे कभी तुम उठा कर लाये थे । तुम दावा करते थे कि वह बेर उससे अधिक मीठा था जो राम ने खा लिया था । तुमने उस बेर को खाकर उसकी गूठली अपने ऑगन में बोई थी, और फिर वह अंकुरित भी तो हुई थी । बताओ ना, तुम्हारी वह बेर की झाड़ी अब भी फूली फली या नहीं ?
अब तुम्हारा वह दोस्त संपाति कहॉ है , उसके पंख जो तब जल गये थे , अब फिर से उगे या नहीं ? तुम इतने बदल क्यों गये हो ? वैसा बोलते नहीं, वैसा हॅसते नहीं, वैसा गाते भी नहीं । पहले तो कभी तुम आइने में समाते नहीं थे, अब भी आइना उतना ही छोटा है जितना पहले था, मगर तुम्हारे समूचे समा जाने के बाद भी आइने में इतनी खाली जगह कैसे बची रहती है ? मुझे कुछ समझ में नहीं आता ।
एक दिन आइना बोला कि जब आदमी आइना देखना छोड़ देता है तब वह मीठे बेर की ऋतु बदल जाती है । तब बेर की झाड़ी में डाला हुआ हाथ कॉटों की खरोंच से भर जाता है और जिस ऍगुली से खून बह रहा हो, उसे मुॅह में चूसता हुआ आदमी बोलता नहीं, सिसकारी भरता है , और ऍगुली का खून मॅुह से चूस कर वह यही देखता है कि कहीं और खून तो नहीं बह रहा ।
मेरे दोस्त, अब कभी उस वन से गुज़रो तो शबरी की उस झोपड़ी का द्वार खटखटाना । अब वहॉ शबरी तो नहीं रहती, पर उसकी सींची हुई बेर की झाड़ी वैसी ही फली फूली है ।
उस ऑगन में जाकर तुम उस झोपड़ी का द्वार खटखटाना । यदि तुम भूल गये हो तो याद दिला दूॅ कि उस दरवाज़े पर राम के ज़माने से आज तक कोई सॉकल हीं नहीं लगी, पर फिर भी भीतर जाने से पहले द्वार को खटखटाना तब भी ज़रूरी था और आज भी जरूरी है । उस कुटिया में एक दीया जल रहा है । त्रेतायुग से आज तक उस दीये में किसी ने घी नहीं डाला, फिर भी वह दीया वैसा ही जल रहा है । वहॉ जाओ । उस दीये की लौ अपनी ऑखों में भर कर जब लौटोगे तो रास्ते में तुम्हें बरसों से बिछुड़ा हुआ तुम्हारा दोस्त संपाति मिलेगा ।
वह संपाति तुम्हें पूछेगा कि जो सूरज आकाश में रहता है जिसने उसके पंख जला डाले, वह सूरज तुम अपनी ऑखों में कैसे रख लाये ? तब तुम संपाति से जो कहो वह मुझे भी कहना।
तुम्हारा - गोविंद
थोड़ा सा फर्क -
घमण्ड और आत्म विश्वास में क्या फर्क है ? जो हमारे अंदर होता है वह हमें आत्म विश्वास मालूम होता है और जो दूसरों में होता है वह घमण्ड दिखाई देता है ।
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