Sunday, March 15, 2009

भीम बैठकम और इतिहास की इन्द्रधनुषी - धूप छॉव

"यात्रा संस्मरण"

भीम बैठकम और इतिहास की इन्द्रधनुषी - धूप छॉव

गोविन्द कुमार ''गुंजन''

हमारी सभ्यता के विकास का इतिहास बड़ा रोमांचक है । पूर्व पाषाणकालीन मनुष्य के लिए प्रकृति सब कुछ थी, परंतु कड़ी धूप, वर्षा की प्रचण्ड झड़िया, ऑधी और तूफानों से निरंतर संघर्ष करते हुए तथा वन्य पशुओं से अपनी रक्षा करते हुए, किसी न किसी निरापद आश्रय की खोज निरंतर उसकी यात्रा से जुड़ी रही । जब आदमी न कुटिया बनाना जानता था, न वस्त्रों का ही आविष्कार हुआ था , तब उसके लिए आदिम आश्रय या तो वृक्ष थे या पर्वत । वृक्षों की छाया से बढ़कर वनों में घूमते आदि मानव ने पर्वत-कंदराओं को ही अपने लिए अधिक सुरक्षित पाया होगा इसीलिए हम पर्वत को ही मनुष्य का ''पहला घर' कह सकते हैं । भौगोलिक परिवर्तनों ने पृथ्वी के नक्शे को बार बार बदला और तराशा है । आज जहाँ भूमि और पठार है, कभी वहाँ समुद्र थे । आज जहाँ समुद्र है , उनके बीच भी असंख्य पर्वत थे । समय और पानी की छेनी निरंतर पर्वतों और चट्टानों को काट काट कर तराशती रही । इन्हीं तराश से जन्मी पर्वतों की विशाल गुफाएँ प्रकृति की अनोखी कला का परिणाम है । ये हमें चमत्कृत तो करती ही है परंतु प्रकृति की उस अनादि और सर्वकालिक शक्ति का भी परिचय देती है, जो अपने हर प्राणी की रक्षा सुरक्षा के लिए नानाविध लीलाएँ करती रहती है । आदिम शैलाश्रयों में जाकर हमें लगता है हम हजारों साल पुरानी अपने पुरखों की दुनिया में पहुॅच गये हैं । यह एक प्रकार से अपने अतीत में प्रतिक्रमण करते हुए, समयकाल की सीमाओं को लॉघ जाना है । यह बरसोें बाद परदेश से अपने देश में लौटने की आल्हादकारी और रोमांचक अनुभूति है । इन शैलाश्रयों में हम अपने आदिम पुरखों की सॉस से जन्मी तरंगों और उन तरंगों से ओतप्रोत प्रणय की उन आदिम रागिनियों को महसूस करते हैं जो अभी भी हवाओं में घुली हुई है । इन पर्वतों के आसपास आदिम पुरखों के घोड़ों की टापें, नृत्य की थापें, और शिकार की गहमा गहमियाँ अपनी ध्वनि देहों में अभी भी अंतरिक्ष में तैर रही है । हमारे कान इन ध्वनियों को आज सुनने में समर्थ नहीं है, किंतु भौतिक विज्ञान का विश्वास है कि ध्वनियॉ कभी नष्ट नहीं होती । अंतरिक्ष में आज भी उस कोयल की पहली कूक विद्यमान है जो पहली बार इस धरती पर गूॅजी होगी । पहली बार जो शिशु इस धरती पर जन्मा होगा उसकी पहली किलकारी , उसकी पहली प्रणय की गुनगुनाहट और उसकी अंतिम चित्कार तक प्रकृति के संग्रहालय में सुरक्षित है । किसी दिन विज्ञान उन ध्वनियों को फिर से सुनने योग्य फ्रिक्वेंसी पर लाकर हमें हमारे हर उस आदिम राग का परिचय दे सकता है जो कभी इस धरती पर तरंगित थें । मनुष्य की अनुभूतियों की शक्ति भी अपार है । विज्ञान जिनका साक्षात्कार करने में एक लम्बी प्रक्रिया और समयावधि से गुजरता है, उसे क्षणांस की तीव्र अनुभूति में ही हमें तत्काल प्राप्त कर सकते हैं । मन को महाकाल की हर देहरी लॉघ जाने की अपार शक्ति भी स्वयं महाकालेश्वर ही प्रदान करते हैं । कालातीतता और तात्कालिकता की यह लुकाछिपी हम अपनी अनुभूति की तीव्रता से जब खेलते हैं तो जो संसार हमारे सामने प्रकट होता है, वह बड़ा रहस्यमय, रोमांचक और चमत्कृत कर देने वाला होता है । लगभग ऐसी ही अनुभूति भोपाल से लगभग पैंतालीस किलोमीटर दूर स्थित भीम बैठकम शैलाश्रय पहुॅचकर हुई । म.प्र. राष्ट्रभाषा प्रचार समिति हर साल भोपाल के हिन्दी भवन में ''पावस व्याख्यान माला'' आयोजित करती है । अपने महत्वपूर्ण विमर्शों और देशभर के साहित्यकारों के संगम से यह व्याख्यानमाला पूरे देश में अपनी पहचान बना चुकी है । इसके मंत्री कैलाशचन्द्र पंत ने व्याख्यानमाला में आये साहित्यकारों को भोपाल की इस पुरा ऐतिहासिक धरोहर से परिचय कराने के लिए व्याख्यानमाला के पहले ही दिन , भीम बैठकम की यात्रा आयोजित की थी । इस दल में भारतीय वॉगमय परंपरा के महत्वपूर्ण आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी, स्व. धर्मवीर भारती की जीवन संगिनी पुष्पाभारती और हिन्दी की आधुनिक वैष्णव काव्य परंपरा के शिखर पुरूष स्व. नरेश मेहता की पत्नी महिमाजी भी हम लोगों के साथ थी । पाण्डेय शशिभूषण शीतांशु (अमृतसर) सूर्यप्रकाश दीक्षित (मेरठ), कुमार सुरेश (भोपाल) तथा मेरे आत्मीय मित्र कैलाश मण्डलेकर आदि का सुहाना साथ इस यात्रा को यादगार बनाने के लिए काफी था । भीम बैठकम पहुॅचने से पहले मेरे मन में बार बार उसका प्रचलित नाम ''भीम बैठका'' कुछ विचित्र सी अनुभूति दे रहा था । अंगे्रेजी उच्चारण पध्दति के प्रभाव से कितने ही भारतीय नामों का स्वरूप बदल गया है। राम से रामा, कृष्ण से कृष्णा, योग से योगा, जैसे शब्दों का प्रचलन अखरते हुए भी सुनना पढ़ना पड़ता है। मुझे भीम बैठका शब्द में भी इसी अंग्रेजी उच्चारण शैली का प्रभाव महसूस होता रहा है, इसलिए मैंने तय किया कि इस शैलाश्रय को मैं भीम बैठका के बजाय भीम-बैठकम शैलाश्रय ही कहुॅगा। शब्दों की व्याकरण सम्मत व्युत्पत्ति और शुध्दता के विचार से अधिक, इस तरह का नामकरण मुझे संस्कृत परंपरा के निकट और भारतीय परंपरा के अनुकूल लगता है । भीम बैठकम् पाषाणिक संस्कृति की महत्वपूर्ण और जीवंत स्मृतियों से भरा एक सुन्दरतम शैलाश्रय है । हमारी प्राचीनतम संस्कृति पाषाणिक संस्कृतियाँ हैं । इनके विकास के तीन चरण है , पहला पुरा पाषाणिक, दूसरा मध्य पाषाणिक एवं नव पाषाणिक । देश भर में अनेक शैलाश्रय खोजे गये हैं जिनमें पाषाणकालीन मनुष्य अपनी उपस्थिति और निवास की यादें चट्टानों पर अमिट शैलचित्रों के माध्यम से छोड़ गया है । डॉ. वाकणकर ने यहाँ पुरातात्विक उत्खनन से प्राप्त रंगों के टुकड़ों के आधार पर हरे रंग से बने शैलचित्रों को उच्च पुरा पाषाणकालीन माना है । इन शैलचित्रों की प्राचीनता को लेकर विभिन्न मत है । पुरावेत्ता गार्डन इन्हें इस्वी 600 के मानते थे किन्तु अब आधुनिक खोजों ने यह सिध्द किया है कि प्रागैतिहासिक कालीन शैलचित्र भी अभी विद्यमान है । पंचानन मिश्र तथा मनोरंजन घोष ने खोजे गये शैलचित्रों की अवधि ईसवी पूर्व 50000 साल तक निर्धारित की थी । देशभर खोजे गये शैलाश्रयों में मिर्जापुर के पास सोहगीघाट का शैलाश्रय और शैलचित्र सबसे पहले खोजे गये थे । बालूकाश्म प्रस्तर वाली विध्यांचल की पहाड़ियों में ये बड़ी तादाद में मिले हैं । देश भर में अभी तक 2000 से अधिक शैलाश्रय खोजे गये हैं । बेतवा और कालीसिंध के समीपवर्ती क्षेत्रों के अलावा भोपाल के लगभग पचास किलोमीटर क्षेत्र में फैले शताधिक शैलाश्रय विद्यमान है । पचमढ़ी में भी दर्जनभर शैलाश्रय है । इनको महाभारतकालीन मानने की जनश्रुतियाँ भी है। इसीकारण ऐसी मान्यताएँ हैं कि पाण्डवों ने अपने वनवास का कुछ समय इन शैलाश्रयों में गुजारा था । पचमढ़ी की पाण्डव गुफाएँ और भोपाल की भीम बैठकम् अपने साथ जुड़े महाभारत कालीन संदर्भो के कारण इन नामों से जाने जाते हैं। एक बार सुप्रसिध्द पुरावेत्ता डॉ. वाकणकर होशंगाबाद जाते समय अचानक बस से उतरकर भोपाल के इन शैलाश्रयों में पहुॅच गये थे । उनकी दृष्टि ने इसका महत्व समझने में कोई भूल नहीं की । उनकी खोज और उत्खनन के साक्ष्यों ने हमें जिस आदिम संस्कृति के एक प्राचीन मानववास स्थल का परिचय कराया उसके महत्व को अब विश्व स्तर पर मान्यता मिल चुकी है । डॉ. वाकणकर जी के पास प्रकृतिप्रदत्त दिव्य दृष्टि थी । सन 1984 में खरगौन जिले के कस्बे सनावद में उनके सम्मान में एक कार्यक्रम रखा गया था । मुझे उस कार्यक्रम की सूत्रधारिता प्रदान की गयी थी । वही मेरा वाकणकरजी से पहला परिचय भी था । तब मैंने उनके सम्मान में कहा था कि - ''वाकणकरजी का नाम ही उनकी विशेषता बताता है, वाक+कण+कर , अर्थात जो कण को भी वाक (वाणी) प्रदान कर सकते हैं उनके सामने पड़ी चट्टान, पत्थर के टुकड़े तक उन्हें स्वयं अपना इतिहास सुनाने लगते थे। भीम बैठकम जाकर उनका आत्मीय स्मरण आना स्वाभाविक ही था । निरंतर चरैवेति का मंत्र ही जिनका जीवन था, उन वाकरणजी की स्मृति को प्रणाम करते हुए मैंने भीम बैठकम् के शैलाश्रय में जब प्रवेश किया तो मेरी कल्पनाओं में तरंगे उठने लगी । वहाँ की हवाओं में एक आदिम राग गूॅज रहा था । उन चट्टानों पर से हजारों साल पहले गुजरे समुद्र के पदचिन्ह महाकाल की अनवरत यात्रा के निशान थे । ये चिन्ह मूक होकर भी किसी मौनी योगी की तरह अपनी उपस्थिति भर से अपना इतिहास को बयान कर रहे थे । इतिहास की इन्द्र धनुषी धूप छॉव में मेरे भीतर का कवित्व कालातीत क्षणों का साक्षात्कार कर रहा था । यहाँ की एक एक चट्टान अपने आदिम वासियों की सुगंध की, उनके स्वेदकणों की, उनके पुरूषार्थ और प्रणय की साक्षी थी । इन चट्टानों पर हमारे उन अनाम आदिम पुरखे पुरूषों ने पत्थरों के रंगों से अपनी कलात्मक छापे छोड़ी थी जिनकी विरासत संपूर्ण मनुष्य जाति के इतिहास की गौरवशाली संपदा है । शैलाश्रय में प्रवेश करते समय पर्वत की चट्टाने कुछ इस तरह नजर आती है, मानो उन्हें किसी अज्ञात शिल्पी ने किसी निवास स्थिति का निर्माण करने के लिए उद्देश्यपूर्ण ढंग से एक दूसरे पर स्थापित कर दिया हो। वास्तव में यह किसी मनुष्य का नहीं, प्रकृति का चमत्कार है । चट्टानों के एक दूसरे पर आरोपण्ा से निर्मित एक छोटी सी गुफा में लगभग छ: फुट ऊॅची खोह बन रही थी । इसमें आप सीधे खड़े खड़े प्रवेश कर सकते हैं । ये सारी चट्टानें कभी समुद्री जल में डुबी हुई थी । पानी की छेनी ने काटकाट कर इन गुफओं का निर्माण किया है। गुफा में नीचे की तरफ दोनों ओर प्राकृतिक रूप से चट्टाने कटी हुई है , मानों उस गुहा में रहने वाले के लिए प्रकृति ने ''वेन्टीलेटरर्स'' का निर्माण किया हो । गुफा में पहुॅचकर एक गहरी ठंडक महसूस हुई । यद्यपि यह सावन का महीना था, किन्तु अवर्षा के कारण बाहर का मौसम बड़ा सूखा और गर्म महसूस हो रहा था । बाहर तो धूप कचोटने वाली थी, किन्तु इस प्राकृतिक गुफा में पूरी तरह वातानुकूलित वातावरण था । वयोवृध्द आर्चाय राममूर्ति त्रिपाठी ने धीरे धीरे यहाँ पहुॅचकर तथा एक चट्टान पर बैठकर जो संतोषभरी सॉस ली , उससे उनके श्रम के परिहार होने का संकेत मिल रहा था । कौतुहल से भरी पुष्पाजी की ऑखों में भारतीजी की कुछ कविताएँ आकार लेती लग रही थी । सूर्य प्रकाश दीक्षित और कुमार सुरेश प्रकृति के इस अनोखे वैभव को अपने कैमरे में बॉध लेने को उत्सुक हो उठे । थोड़े उपर चलकर देखा तो चट्टानों पर जमी चट्टानों को पाषाणकालीन समुद्र ने चारों ओर से काटकर एक विशाल कछुएँ की आकृति में ढाल दिया था । इस कछुॅए की विशाल कवच वाली पीठ, उसके पैर और मुड़कर पीछे की तरफ देखती मुखमुद्रा तथा उठी हुई पूॅछ ने प्रकृति शिल्पि की जिस कला वैभव की झॉकी हमारे सामने उपस्थित की वह किसी चमत्कार से कम नहीं थी । इस प्राकृतिक चट्टान के किसी विशाल कछुए की आकृति में बदल जाने की घटना को हम केवल संयोग कहकर टाल नहीं सकते । यह विविध आकृतियों का निर्माण अकारण नहीं है । यह कछुआ नर है या मादा, इसे आप नहीं जान सकते परंतु इसके बहाने हम प्रकृति की अपार सृजनशीलता का रहस्य अवश्य समझ सकते हैं । अमरीकी कवि आग्डेन-नेश को कभी किसी कछुए को देखकर सूझा था कि यह कैसे जाने कि यह नर है या मादा ? वह लिखता है - The turtle lives 'twixt plated decks/ which practically conceal its sex.I think it clever of the turtle / in such a fix to be so fertile''मुझे भी यह प्रकृति कश्यप की सृजनशील चतुराई का एक जीवंत नमूना मालूम हो रहा था । इन गुफाओं के प्रकाशमान शैलाश्रयों की चट्टानों पर पाषाणकालीन मनुष्य ने पत्थर के रंगों से अनेक आकृतियाँ निर्मित की है । इनको बनाने में एक रंग, दो रंगों या बहुरंगों का प्रयोग किया है । अधिकतर चित्रों में शिकार करते मानव, वन्य पशुओं और हिरण, घोड़े, हाथी का चित्रण बहुत प्रभावशाली है । कहीं कहीं आदिवासी नृत्य शैलियों को साकार करते सामुहिक नृत्य दल भी चित्रित है। ढोल जैसी आकृति का वाद्ययंत्र और नृत्य से थिरकते स्त्री-पुरूषों को देखकर आदिम मनुष्य का कलाप्रेम, अभिव्यक्ति की क्षमता और उत्सव प्रियता का भी पता चलता है । पाषाणकालीन नर पुंगव बड़े कल्पनाशील भी थे । भीम बैठका की एक विशाल चट्टान पर बने चित्र में एक अदभुत पशु आकृति अंकित हैं जिसकी मुखाकृति सुअर की तथा उसकी पूॅछ तथा सींग वृषभ के हैं । शिव मंदिर शैलाश्रय में एक विशाल अजगर का चित्र है जो आठ मोड़ो वाला है और उसकी पूॅछ की तरफ शिकारी निशाना साध रहे हैं । इन चित्रों के अवलोकन से हम किसी जादुई प्रभाव से उस अतीत के युग में प्रतिक्रमित हो रहे थे । यह अनुभव विस्मयकारक था । हम उस अनादि कला यज्ञ में सहस्त्रों वर्षो बाद शरीक हो रहे थे। मन सुगंध से भरा जा रहा था । शैलाश्रय की दीवारों पर उन अनाम पाषाणकालीन मानव की कलात्मक अंगुलियों की छाप मन को छू रही थी । गाइड ने बताया कि यहाँ खुदाई में उन पाषाण कालीन मानवों के कंकाल भी मिले थे जिन्हें अब संग्रहालय में सुरक्षित रख लिया गया है । सोचता हूँ वह कैसा समय रहा होगा, जब हमारी इस दम घोटू सभ्यता का विकास नहीं हुआ था । तब पाषाण कालीन मनुष्य का हृदय इतना पाषाण नहीं हुआ था कि वह अपने प्रणय की निश्छल गुनगुनाहटों में डूबा, प्रकृति की वरद शरणस्थली में अपनी चिंताओं से मुक्त, अपने जीवन का इतिहास इन चित्रों में अंकित नहीं करता । गुफाओं पर क्रम अंकित करने के लिए अब जिन आधुनिक रंगों से गुफा संख्या अंकित की जाती है वह तो साल दो साल में ही मिटने लगती है , परंतु दस बीस हजार साल पुराने ये रंग कितने पक्के हैं कि समय की धूप भी उन्हें धुॅधला न सकी । घनघोर वर्षा और तूफान भी उन रंगों को धो न सके । वास्तव में ये पक्के रंग प्रेम में डूबे हुए रंग हैं । कलाओं का जन्म प्रेम बिंधे हृदयों में ही होता है । इन्हीं पक्के रंगों से रंग कर कभी श्याम ने राधा की चुनर रंगी होगी, जिसे बकौल राधा यदि धोबनिया सारी उमर भी धोए तो वह रंग उतरने वाले नहीं थे । इन चित्रों में हमारी चित्रकला के विकास के प्रारंभिक पदचिह्न अंकित हैं । उन अनाम पाषाणकालीन मानवों के इस कला प्रेम को सचमुच नमन करने को जी चाहता है। भीम बैठकम के पास ही स्थित प्राचीन देवी स्थल भी है जिसे वैष्णोदेवी कहा जाता है । संभव है , कभी पांडवों ने भी वनवास काल में यहाँ पूजा अर्चना की हो । यहाँ की एक विशाल चट्टान के नीचे दबी एक कोमल चट्टान को देखकर ऐसा लगा जैसे भीम के भुजपाशों में पॉचाली इठला रही हो, इन गुफाओं से बाहर आते समय लगा जैसे हम एक बीते युग से वापस अपनी दुनिया में लौट रहे हों।

उत्तरायण, 18 सौमित्र नगरखंडवा - 450001 (म.प्र.)

4 comments:

वन्दना अवस्थी दुबे said...

बहुत सुन्दर संस्मरण..शुभकामनायें..

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

jankari dee, shukriya. narayan narayan

अभिषेक मिश्र said...

Acchi jaankari di aapne. Swagat.

शब्दकार-डॉo कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

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